Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 488
________________ ४६४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय १० : सूत्र २-३ पहले ही हो जाता है । शेष चार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन अघाती कर्मों का सद्भाव अरिहन्तों को रहता है। इन चारों के नाश होते ही सम्पूर्ण कर्मो का क्षय हो जाता है और आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । इन चारों ही अघाती कर्मों का नाश भी युगपत्-एक साथ ही होता है, आगे-पीछे नहीं । . कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आयु कर्म की स्थिति तो कम होती है और शेष तीन अघाती कर्मों की स्थिति अधिक । ऐसी दशा में शेष कर्मो की स्थिति आयु कर्म के समान करने के लिए केवली भगवान समुद्घात करते हैं। वास्तव में तो केवली समुद्घात करते नहीं, ऐसी स्थिति में सहज ही समुद्घात होता है; किन्तु व्यवहार में समुद्घात करना कहा जाता है । समुद्घात की प्रक्रिया इस प्रकार है - प्रथम समय में केवली भगवान अपने आत्म-प्रदेशों को दण्ड के समान लम्बाकार करते हैं, दूसरे समय में चौड़ाई में फैलाते हैं, तीसरे समय में मथांनी के आकार के बनाते हे और चौथे समय में लोक में व्याप्त कर देते हैं । फिर विपरीत क्रिया शुरू होती हैं । पाँचवे समय में मथानी के आकार के छठे समय में चोड़ाई के, सातवें समय में दण्डाकार और आठवें समय में आत्म-प्रदेशों को अपने शरीर के मूलाकार रूप में बना लेते है। जिस प्रकार प्रसारण और संकुचन की क्रिया से वस्त्र में लगे रज-कण गिर जाते हैं, अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस समुद्घात क्रिया से आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध कर्म-पुद्गल भी झड़ जाते हैं, पृथक् हो जाते हैं । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया मे सिर्फ आठ समय लगते हैं और सभी कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर हो जाती है । केवली भगवान द्वारा किये जाने के कारण यह समुद्घात केवली समुद्घात कहलाता है। जब सयोगी केवली भगवान की आयु अन्तर्मुहुर्त शेष रह जाती है तब वे समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती अथवा व्युपरतक्रियाऽनिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यान में प्रवेश करते हैं और योग-निरोध करते हैं । योग-निरोध का क्रम इस प्रकार है - सर्वज्ञ भगवान (संयोगी केवली जिन) सर्वप्रथम स्थूल काय योग के सहारे से स्थूल मन को सूक्ष्म बनाते हैं । फिर सूक्ष्म मनोयोग के आश्रय से स्थूलकाययोग को सूक्ष्मकाययोग में परिणत करते हैं । तत्पश्चात् सूक्ष्मकाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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