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मोक्ष ४६९ यहाँ इस बात की तुलना Newton (प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन) के गति नियम (Law of motion) से की जा सकती है- उसने कहा है, एक बार आवेशित होने के बाद कोई भी वस्तु तब तक गतिमान रहेगी, जब तक कोई अवरोध न आ जाय, चाहे वह आवेश हटा ही लिया जाय ।
इसी प्रकार पूर्व-प्रयोग के निमित्त (सही शब्दों में अभावात्मक निमित्त) से मुक्त आत्मा गति करता है।
(२) संगरहितता - संग का अभिप्राय सम्बन्ध है। जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है; किन्तु कर्मों के संग अथवा सम्बन्ध के कारण उसे नीची अथवा तिरछी गति भी करनी पड़ती है। कर्मों का संग अथवा सम्बन्ध टूटते ही वह अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति करता है।
(३) बन्धन का टूटना - संसारी अवस्था में जीव कर्मों के बन्धन में जकड़ा रहता है, उस बन्धन के टूटते ही जीव अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से गमन करता है।
.. (४) तथागतिपरिणाम - इसका अभिप्राय है - जीव की स्वाभाविक गति ही ऊर्ध्व है; अर्थात् ऊर्ध्वगमन जीव का स्वभाव ही है।
जीव के उर्ध्व गमन स्वभाव को समझाने के लिए तुम्बे का दृष्टान्त दिया जाता है। जिस प्रकार सूखे तुम्बे को कुशा से लपेट कर और इस पर आठ · बार मिट्टी का लेप कर सागर में छोड़ा जाय तो वह भारी होने के कारण सागर के तल में पहुँच जाता है और जब मिट्टी घुल जाने से तुम्बा हल्का हो जाता है तब वह सागर तल से सीधी उठकर सतह पर आजाता है, उसी प्रकार कर्ममुक्त आत्मा भी कर्मबन्धन टूटते ही ऊर्ध्व गमन करता है।
दूसरा दृष्टान्त अग्निशिखा का दिया जाता है। अग्निशिखा जिस प्रकार ऊर्ध्वगमन स्वभावी है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा भी है।
तीसरा दृष्टान्त अण्डी (एरण्ड) बीज का है । जैसे ही एरण्ड के बीज पर लगा हुआ फल का आवरण सूखने पर फट जाता है तो बीज तुरन्त ही चिटककर ऊपर को जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी ऊपर को जाता है।
अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि यदि आत्मा (मुक्त आत्मा) का ऊर्ध्व गमन स्वभाव ही है तो वह लोकान्त पर जाकर ही क्यों रुक जाता है ? आगे अलोक में गमन क्यों नहीं करता ?
इस जिज्ञासा का समाधान सूत्रकार ने तो नहीं किया; किन्तु
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