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४७२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय १० : सूत्र ७
चिह्न । वर्तमान की अपेक्षा तो सिद्ध वेदांतीत हैं ही और उनका कोई लक्षण भी नहीं है। अतः वे अलिंगी ही हैं ।
आसन्नभूत की अपेक्षा भी अवेदी ही मुक्त हो सकते है। यदि और भी विस्तार से विचार करें तो स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी ये तीनों भी सिद्ध हो सकते हैं ।
लिंग (बाह्य वेश) की अपेक्षा जैनलिगं ( साधु - लिंग), पर-लिंग जैनेतर पंथ का लिंग और गृहस्थ लिंग ये तीनों लिंगों के धारी भी सिद्ध हो सकते हैं; किन्तु भावलिंग सम्यग्दर्शन सहित वीतरागता सभी में आवश्यक है।
(५) तीर्थ - तीर्थ का अभिप्राय है - तीर्थंकर द्वारा प्रचलित सद्धर्मजिस समय चल रहा हो । ऐसे समय में सिद्ध होने वाले जीव तीर्थसिद्ध कहे जाते
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है।
मरुदेवी माता जैसे विशुद्ध परिणामी जीव ऐसे भी होते हैं जो तीर्थ प्रवर्तन से पहले भी हो सिद्ध जाते हैं । ऐसे मुक्त जीव अतीर्थसिद्ध हैं ।
इसका दूसरा अभिप्राय तीर्थंकर भी लिया जा सकता है। भरतक्षेत्र की अपेक्षा प्रत्येक अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर ही होते हैं, ये तीर्थंकर सिद्ध कहलाते हैं और शेष जितने मनुष्य मुक्त होते है व अतीर्थंकर - सिद्ध कहलाते है ।
(६) चारित्र सिद्ध जीव अपनी वर्तमान पर्याय में तो चारित्र से ऊपर उठे हुए है । आसन्न भूतकाल की दृष्टि से यथाख्यात चारित्री ही मुक्त होते हैं । यदि और भी पीछे की ओर दृष्टि डाली जाय तो पाँचों चारित्र वाले भी मुक्ति का कारण होते हैं
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(७) प्रत्येकबुद्ध बुद्धबोधित - ये दो प्रकार के हैं (१) प्रत्येकबुद्ध और (२) बुद्धबोधित - दूसरे के उपदेश को ग्रहण करके सिद्ध होने वाले । प्रत्येकबद्ध किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं रखते, इनकी आत्मा स्वयं जागृत होती है। इसी कारण तीर्थकर भगवान स्वयंबुद्ध होते है । वे स्वयं ही अपनी आत्म-जागरणा से मुक्ति प्राप्त करते हैं । दूसरे, प्रत्येकबुद्ध किसी निमित्त को पाकर जाग उठते हैं और मुक्ति प्राप्त करते है ।
बुद्धबोधित देव, गुरुदेव आदि के उपदेश से आत्म कल्याण करके सिद्धि प्राप्त करते हैं ।
(८) ज्ञान - वर्तमान और भूतकाल की दृष्टि से सिद्धों में केवलज्ञान
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