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मोक्ष
४६७ (३) अव्याबाध सुख - इसकी उत्पत्ति वेदनीय कर्म के क्षय से होती
है।
(४) क्षायिक सम्यक्त्व- इसकी उत्पत्ति मोहनीय कर्म के नष्ट होने से होती है।
(५) अव्ययत्व - यह आयुष्य कर्म के नष्ट होने से प्रगट होता है। (६) अमूर्तित्व - यह नाम कर्म के क्षय से प्रगट होता है। (७) अगुरुलघुत्व - इसका प्रगटीकरण गोत्र कर्म के क्षय से होता
है
(८) अनन्तवीर्य - यह अन्तराय कर्म के नाश से उत्पन्न होता है।
वस्तुतः यह सभी गुण आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, कहीं बाहर से प्रक्षिप्त नहीं होते, नये उत्पन्न नहीं होते; सिर्फ बात इतनी-सी है कि आठ कर्मों द्वारा यह आठ प्रमुख गुण आवरित हो जाते हैं; ढक जाते हैं और कर्मों के नष्ट होते ही यह गुण अनावरित होकर अपने सहज-स्वभाविक रूप में चमक उठते हैं, प्रगट हो जाते हैं, उसी तरह जैसे काले-कजराले मेघ पटलों के छिन्न-भिन्न होते ही सहसत्ररश्मि सूर्य अपनी स्वभाविक प्रभा से चमक उठता
है।
आगम वचन
अणुपुव्वेणं अट्ठ कम्पगडीओं खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्गपतिट्ठाणा भवन्ति । -- ज्ञाताधर्मकथांग, अ. ६, सू. ६२
(इस प्रकार क्रम से आठों कर्मों की प्रकृतियों को नष्ट करके आकाश में ऊर्ध्वगति द्वारा लोक के अग्र भाग में प्रतिष्ठित होते हैं ।)
अत्थि णं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति ? हंता अत्थि । कहन्नं भंते । अकम्मस्स गति पन्नंयति ?
गोयमा ! निस्संगयाए || गतिपरिणामेणं बंधणछेयणयाए।. पुव्व पयोगेणं अकम्मस्स गती पन्नत्ता - भगवती, श. ७, उ. १, सू. २६५
(भगवन् ! क्या कर्म रहित जीव के गति होती है? हाँ, होती है । उनके गति किस प्रकार होती है ?
है गौतम ! संग रहित होने से, स्वभाविक ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला होने से, कर्मबन्ध के नष्ट हो जाने से, पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है।)
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