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३६० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८: सूत्र ५-६
इसके लिए शास्त्रों में बाला - स्त्री का दृष्टान्त दिया गया है । जैसे विवाहित होते हुए भी बालिका - स्त्री अपने युवा तथा भोग-सक्षम पति की काम - भावना को नहीं भड़काती, उसी प्रकार अबाधा काल में कर्म भी जीव को किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाता, वह अबाध बना रहता है ।
इसे यों समझें जैसे बीज बोने के बाद फल पकने तक का समय = क्योंकि पकने के बाद ही फल उपभोग योग्य होता है, उससे पहले नहीं । जिस प्रकार भूमि के अन्दर पड़ा हुआ बीज, माली अथवा किसान की उपभोगेच्छा को नहीं भड़काता उसी प्रकार की कर्म की अबाध दशा है ।
किस कर्म का अबाधाकाल कितना है, यह उस कर्म के स्थितिबन्ध पर निर्भर है । इसकी गणना का साधारण नियम यह है जितने कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति बँधे उतने ही १०० वर्ष का अबाधाकाल होता है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरणीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ा - कोड़ी सागरोपम है तो उसका अबाधाकाल ३०x१०० = ३००० वर्ष का होगा ।
इसी प्रकार अन्य सभी कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों का ( आयु कर्म को छोड़कर) अबाधाकाल ज्ञात किया जा सकता है ।
इस प्रकार कर्मबन्ध की यह ११ स्थितियाँ है । इनमें बन्ध का सम्पूर्ण स्वरूप समाया हुआ है । इन्हे हृदयगम करने पर बन्ध तत्त्व को समझना सरल और सुगम हो जाता है ।
(तालिका पृष्ठ ३६१ पर देखें)
आगम वचन
अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओं तं जहा - णाणावरणिज्जं दंसणावरणिज्जं वेदणिज्जं मोहणिज्जं आउयं नामं गोयं अन्तराइयं । प्रज्ञापना पद २१, उ. १. सूत्र २८८
( कर्मप्रकृतियां आठ प्रकार की हैं १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय । मूलकर्म प्रकृतियों के नाम और उनकी उत्तरप्रकृतियों की संख्या का निर्देश
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आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्क नामगोत्रान्तरायाः । ५ । पंचनवद्व्यष्टाविशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदा यथाक्रमम् | ६ |
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