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बन्ध तत्त्व ३९१ उचं णीचं चरणं उचं णीचं हवे गोदं ।
- गोम्मटसार कर्मकांड मूल १३/९ जहां ऊँचा आचरण होता है, वहां उच्चगोत्र और जहां नीचा आचरण होता है वहां नीच गोत्र होता है।
ऊँचे आचरण का अभिप्राय अहिंसा, सत्य, कलीनता, शिष्टता आदि है और नीचे अथवा निम्न आचरण का अभिप्राय हिंसा, झूठ, अशिष्टता आदि बुरा चाल-चलन तथा आचरण है ।
कर्मसिद्धांत और जैनदर्शन की दृष्टि में जाति और कुल का कोई महत्व नहीं है, वहां तो आचरण का ही महत्व है, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है -
सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो । न दीसइ जाइविसेस कोई ।
- उ. १२/३७ तप की विशेषता प्रत्यक्ष में देखी जा रही है, किन्तु जाति की कोई विशेषता नहीं दीखती । महान् चमत्कारी ऋद्धि सम्पन्न हरिकेश मुनि को देखो, जो श्वपाकपुत्र चाण्डाल का बेटा है ।
सारांक्ष यह है- निंद्य कुल में जन्म नीच गोत्र कर्म से मिलता है । उच्च माने जाने वाले कुल में जन्म उच्च गोत्र कर्म के कारण होता है। देशकाल के प्रभाव से उच्च-नीच की परिभाषाए बदलती रहती है ।
उच्च गोत्र के उदय से जीव धन रूप आदि से हीन होता हुआ भी ऊँचा माना जाता है और नीच गोत्र कर्म के उदय से जीव धन, रूप आदि संपन्न होते हुए भी नीचा माना जाता है । आगम वचनअंतराए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ?
___गोयमा ! पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दाणंतराइए लाभंतराइए भोगंतराइए उवभोगंतराइए वीरियंतराइए ।
- प्रज्ञापना पद २३, उ. २, सू. २९३ (भगवन् ! अंतरायकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
गौतम ! वह पाँच प्रकार का है, यथा (१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय (५) वीर्यान्तराय अन्तराय कर्म की उत्तरप्रकृतियां
दानादीनाम् ।१४। दान आदि (अन्तराय कर्म के भेद) है ।
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