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संवर तथा निर्जरा ४०३ (३) अकषायसंवर - क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों से होने वाले कर्मास्रव का निरोध करना ।
(४) अप्रमादसंवर - प्रमाद से होने वाले आस्रव का निरोध।
(५) योगसंवर -अशुभयोगों से होने वाले आस्रव को रोकना । ___संवर के मूल दो भेद हैं - (१) भावसंवर और (२) द्रव्यसंवर ।
कर्मो के पुद्गलों का आस्रव अथवा रुक जाना द्रव्यसंवर है और इन कर्मों के पुद्गलों के आस्रव को रोकने में जो आत्मा के भाव निमित्त बनते हैं, वह आत्म-परिणाम भावसंवर है ।
संवर के मूल रूप से छह कारण है
(१) तीन गुप्ति, (२) पांच समिति, (३) दस धर्म, (४) बारह अनुप्रेक्षा, (५) बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त करना और (६) पांच चारित्रों का पालन करना। वास्तव में ये सब साधना के रूप है जिनसे 'आस्रव' का निरोध होता है ।
इस सब भेदों का कुल योग ५७ हैं अर्थात् संवर के ५७ भेद हैं ।
तप में एक विशिष्टता है कि उसके द्वारा संवर तो होता ही है, साथ ही निर्जरा-कर्मों का क्षय भी होता है ।
इन सब के लक्षण, स्वरूप आदि आगे कहे जा रहे हैं । आगम वचन -
गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो । -उत्तरा. २४/२६
(सभी अशुभ अर्थो (प्रयोजनों) से योगों (मन-वचन-काय) को रोकने को गुप्ति कहा गया है ।) गुप्ति का लक्षण
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः। ४। (योगों की विवेकपूर्वक यथेच्छ प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है ।
विवेचन - योग का विवेचन अध्याय छः के पहले सूत्र में किया जा चुका है ।
योग तीन होते हैं- (१) मन (२) वचन और (३) काय । इन तीनों को सम्यक् प्रकार से निरोध करना यानी अशुभ की ओर न जाने देना, गुप्ति
गुप्ति का अभिप्राय है गुप्त करना, रोकना, निश्चल करना अथवा शांत करना ।
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