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संवर तथा निर्जरा ४१९ (१) सामायिकचारित्र - समस्त सावद्य योग (पापक्रियाओं अथवा रागद्वेषमूलक एवं विषय-कषाय बढ़ाने वालो क्रियाओं) का त्याग ।
(२) छेदोपस्थापनाचारित्र - प्रथम दीक्षा के उपरान्त जो जीवनभर के लिए व्रतो का ग्रहण होता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। सामान्यतः इसे बड़ी दीक्षा भी कहा जाता है।
इसका दूसरा लक्षण यह भी है कि किसी दोष-सेवन के कारण महाव्रत दूषित हो जायें तब नये सिरे से जो व्रतों का ग्रहण कराया जाता है अथवा नई दीक्षा दी जाती है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है ।
इस दशा में पूर्व दीक्षा-पर्याय के वर्षों को गणना नहीं की जाती और ज्येष्ठ साधु भी नवदीक्षित बन जाता है।
(३) परिहारविशुद्धिचारित्र - विशिष्ट प्रकार के तपोप्रधान आचार का पालन ।
(४) सूक्ष्मसंपरायचारित्र - इसमें सिर्फ लोभ (संजल्वन लोभ कषाय) का बहुत ही सूक्ष्म अंश शेष रह जाता है । यह चारित्र दशवें गुणस्थान में होता है, उससे नीचे के गुणस्थानों में नहीं होता ।
(५) यथाख्यातचारित्र - इस चारित्र में कषायों का अंश बिल्कुल भी नहीं होता, इसमें आत्मा के शुद्ध निर्मल परिणाम होते हैं । इसीलिए इसे (वीतराग चारित्र भी कहा जाता है। यह ११ वें से १४ वें तक चार गुणस्थानों में ही होता है ।
. इस प्रकार ३ गुप्ति, ५ समिति, १२ भावना, १० धर्म, २२ परीषहजय और ५ चारित्र- संवर के यह ५७ भेद हैं, जिनसे आस्रवों का निरोध होता
(तालिका पृष्ठ ४२० पर देखें) आगम वचन
बाहिरिएतवे छविहे पण्णत्ते, तं जहा
अणसण. ऊणोयरिया भिक्खायरिया य रसपञ्चाओ । कायकिलेसो पडिसंलीणया वज्झो तवों होई ।
- भगवती, श. २५, उ. ७, सू. १८७ (बाह्य तप छह प्रकार के कहे गये हैं, यथा (१) अनशन, (२) ऊनोदरी (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश और (६) प्रतिसंलीनता।
अभिन्तरए तवे छविहे पण्णत्ते तं जहापायच्छितं विणओ वेयावच्चं सज्झाओं झाणं विउस्सग्गो ।
. - भगवती श. २५, उ. ७, सू. २१७
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