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संवर तथा निर्जरा ४१७ इस प्रकार ज्ञानावरणीयजनित २. मोहनीयजनित ८. अंतरायजनित १. और वेदनीयजनित ११ यो कुंल २२ परीषह ४ कर्मजनित हैं)।
सूक्ष्मसंपराय आदि का स्पष्टीकरण - सूत्र संख्या १० में सूक्ष्मसंपराय, छद्मस्थ वीतराग तथा सूत्र संख्या १२ मे बादरसंपराय शब्दों का प्रयोग हुआ है । यह गुणस्थानों के नाम है।
गुणस्थान चौदह हैं, इनके नाम इस प्रकार है
(१) मिथ्यात्व (२) सासादन (३) मिश्र (४) सम्यक्त्व (५) देशविरत (६) प्रमत्तविरत (७) अप्रमत्तविरत (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्ति बादरसम्पराय, (१०) सूक्ष्मसम्पराय, (११) उपशांतमोह, (१२) क्षीण मोह (छद्मस्थ वीतराग केवली), (१३) सयोगिकेवली, (१४) अयोगिकेवली गुणस्थान।
इस गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन इसी ग्रन्थ के प्रथम अध्याय सूत्र ७ के अन्तर्गत किया जा चुका है ।
गुणस्थान जीव के आत्म-विकास के परिचायक हैं तथा क्रमशः होते हैं । ज्यों-ज्यों ज्ञान-दर्शन-चारित्र में जीव उन्नति करता जाता है, त्यों-त्यों वह एक के बाद दूसरा -यों क्रमशः गुणस्थानों पर चढ़ता जाता है।
सूत्र १० में जो कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय से छद्मस्थवीतराग तक १४ परीषह होते हैं, इसका अभिप्राय यह है कि दसवे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवी जीवों (मनुष्यों) में १४ परीषह होना संभव है ।
वे चौदह परीषह यह हैं- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, शैया, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ।
शेष आठ परीषह मोहकर्मजनित होने के कारण इन गुणस्तानवर्ती जीवों में संभव नहीं है; क्योंकि यहाँ मोह नहींवत् है अथवा उसका अभाव है।
( जिनेन्द्र भगवान को ग्यारह परिषह संभव बताये हैं) वे परीषह वेदनीय कर्मजनित है और वेदनीय कर्म का इन दोनं गुणस्थानों में सद्भाव है । यह परीषह है- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल।
सूत्र १.२ में जो कहा गया है कि 'बादरसंपराय में सभी परीषह होते हैं' उसका अभिप्राय यह है कि पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर नौवें बादरसंपराय गुणस्थान तक के सभी जीवों को सभी (बाईसों) परीषह होते
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