Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 452
________________ ४२८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र २२ (६) ध्यान - चित्त की एकाग्रता, शरीर-मन-वाणी का निरोध ध्यान है । ध्येय में चित्त की एकाग्रता, निष्कंप दीपशिखा के समान चित्तवृतित्यों की अचंचलता ध्यान है । __ध्यान तप में चित्त की अपने आलंबन (ध्येय) में पूर्ण रूप से एकाग्रता, तल्लीनता, स्थिरता होती है और चित्त अथवा मन के साथ ही वाणी भी (वचनयोग भी) इसमें लीन तथा शरीर निष्कंप, अचल, निश्चल हो जाता अतः तीनों योगों का निरोध तथा स्थिरता और ध्येयं में एकाग्रता, तल्लीनता ही ध्यान है। आगम वचन . णवविधे पायच्छित्ते पप्णत्ते, तं जहा-आलोअणारिहे पडिकम्मणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउसग्गारिहे तवारिये छेदारिहे मूलारिहे अणवट्ठाप्पारिहे - स्थानांग, स्थान, ९ सूत्र ४२ (प्रायश्चित्त ९ प्रकार का कहा गया है - (१) आलोचनायोग्य (२) प्रतिक्रमणयोग्य (३) तदुभययोग्य (४) विवेकयोग्य (५) व्युत्सर्गयोग्य (६) तपयोग्य (७) छेदयोगय (८) मूलयोग्य (परिहारयोग्य) और (९) अनवस्था अथवा उपस्थापना योग्य) प्रायश्चित्त तप के प्रकार आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गपश्छेदपहिरारौप स्थापनानि । २२। __प्रायश्चित्त तप के नौ (९) प्रकार हैं - (१) आलोचना (२) प्रतिक्रमण (३) तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों) (४)विवेक (५) व्युत्सर्ग (६) तप (७) छेद (८) परिहार और (९) उपस्थापन । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्राचश्चित्ततप के भेद बताये गये हैं । प्रायश्चित्त का अभिप्राय -प्रायश्चित्त प्राकृत भाषा के 'पायच्छित' शब्द से निष्पन्न हुआ है । 'पाय' का अर्थ है पाप और 'छित्त' का अर्थ है, उसको छिन्न-भिन्न करना, मिटाना, समाप्त करना। अतः प्रायश्चित्त का अभिप्राय है पाप को शोधन । धर्मसंग्रह (अधिकार ३) मे कहा गया - प्रायः पापं विनिर्दिष्ट चित्त तस्य विशोधनम् । ( पाप के शोधन की प्रक्रिया प्रायश्चित्त है ।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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