Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 472
________________ ४४८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ३९-४६ क्रियाऽप्रतिपाति में काययोग का अवलम्बन होता है और चौथा शुक्लध्यान व्युपरतक्रियाऽनिवृत्ति में किसी भी योग का अवलम्बन नहीं होता, यह अयोगिकेवलि जिन को होता है। शुक्लध्यान के चारों भेदों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है (१) पृथक्त्ववितर्कसविचार - पूर्वानुसारी श्रुत का अवलम्बन लेकर तथा किसी एक द्रव्य को ध्यान का विषय बनाकर उसमें उत्पाद-व्ययध्रौव्यवरूप भगों को तथा मूर्तत्व अमूर्तत्व पर्यायों पर अनेक नयों की अपेक्षा भेदप्रधान चिन्तन करता हुआ एक पर्याय से दूसरी पर्याय पर, एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, मनोयगो से वचन योग पर, वचनयोग से मनोयोग अथवा काययोग पर, इस प्रकार चित्तवृत्ति का परिवर्तन, पलटना, बदलना आदि रूप ध्यान प्रथम शुक्लध्यान है ।। एक पर्याय से दूसरी पर्याय पर चित्तवृत्ति का गमन अर्थसंक्रांति है। श्रुत के किसी भी एक शब्द से दूसरे शब्द पर चित्तवृत्ति का परिवर्तन व्यंजनसंक्रांति है । मन-वचन-काय के योगों पर परस्पर एक-दूसरे-तीसरे पर चित्त की वृत्ति का गमन अथवा परिवर्तन योगसंक्रांति है। इस प्रकार से मन की वृत्ति का बदलते रहना, विचार कहलाता है। वितर्क श्रुत ज्ञान को कहा जाता है। प्रथम शुक्लध्यान में वितर्क और विचार दोनों ही होते हैं और इनमें चित्तवृत्ति परिवर्तित होती रहती है। (२) एकत्ववितर्क अविचार - शुक्लध्यान के इस दूसरे भेद में वितर्क यानी श्रुत का आलम्बन तो होता है; किन्तु विचार यानि चित्तवृत्ति में परिवर्तन (पलटना) नहीं होता । किसी भी एक पर्याय पर चित्तवृत्ति निष्कंप दीपशिखा के समान स्थिर हो जाती है। (अतः मन निश्चल और शांत बन जाता है। परिणामस्वरूप कर्मों के आवरण शीघ्र ही दूर होकर अरिहंतदशा प्रगट होती है। एक ही ध्येय पर चित्तवृत्ति के स्थिर रहने के कारण इसे एकत्व वितर्क शुक्लध्यान कहा गया है । इसमें चित्त की वृत्ति अभेदप्रधान होती है। (३) सूक्षमक्रियाऽप्रतिपाति - जब केवली भगवान सूक्ष्मकाययोग का अवलम्बन लेकर शेष योगों का निरोध कर देते है, तब श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है। उस समय की आत्म-परिणति का नाम सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती दिया गया है। अप्रतिपाति इसलिए कि वहां से फिर पतन नहीं होता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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