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४६० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ४८-४९ जब योग का निमित्त भी नहीं रहता तब वह संयमस्थान अंतिम संयमस्थान होता है।
इन संयमस्थानों में से सबसे जघन्य संयम स्थान (जहाँ कषाय और योग दोनों ही निमित्त अधिक मात्रा में उपस्थित हैं) पुलाक और कषायकुशल के होता है । ये दोनों ही जघन्य संयमस्थान से असंख्यात संयमस्थानों तक आगे बढ़ते रहते हैं । किन्तु आगे चलकर पुलाक रुक जाता है । और कषायकुशील असंख्यात संयमस्थानों तक आगे बढ़ता चला जाता है।
इसके आगे असंख्यात संमयस्थानों पर कषायकुशील, प्रतिसेवना कुशील और बकुश तीनों प्रकार के निर्ग्रन्थ बढ़ते रहते हैं ।
इससे ऊपर कुछ संयम-स्थान चलने पर बकुश की गति रुक जाती है, उससे भी उपर असंख्यात संयमस्थान चलने के बाद प्रतिसेवना कुशील भी रुक जाता है और उससे भी उपर असंख्यात संयमस्थानों पर आरोहण करने के बाद कषायकुशील की गति भी अवरुद्ध हो जाती है। :
यहाँ से ऊपर अकषाय संयम-स्थान ही है । इन पर केवल निर्ग्रन्थ ही आरोहण करने ने सक्षम होते हैं, लेकिन वह भी असंख्यात स्थानों तक ही चढ़ पाते हैं, आगे उनकी गति भी अवरुद्ध हो जाती है।
इसके आगे एक मात्र विशुद्धतम संयमस्थान आता है। यह संयमस्थान स्थिर है, अप्रतिपाती है, अन्तिम है और सर्वोपरि है । इस संयम स्थान पर केवल स्नातक ही आरोहण करते हैं । और यहीं उनका संयम परिपूर्ण हो जाता है, वे सर्वज्ञ और तदुपरान्त सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं ।
यद्यपि संयमस्थान असंख्यात हैं, किन्तु पूर्व-पूर्व के संयमस्थान की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के संयमस्थान की विशुद्धि (आत्म-विशुद्धि) अनन्त गुणी होती है। कर्म-ग्रन्थों की भाषा में अनन्तगुणी कर्म-निर्जरा होती है।
इस प्रकार प्रस्तुत नौवें अध्याय में संवर और निर्जरा का वर्णन पूर्ण
हुआ ।
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