Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 479
________________ संवर तथा निर्जरा ४५५ गया है कि अमुक की अपेक्षा अमुक को यानी अविरतसम्यग्दृष्टि साधक की अपेक्षा देशविरत यानी अणुव्रती श्रावक को असंख्यातगुणी निर्जरा होती है और यह क्रम जिन अर्थात् सर्वज्ञ केवली भगवान तक बताया गया है कि इनको परिणाम - विशुद्धि की अपेक्षा क्रमशः निर्जरा भी असंख्यातगुणी बढ़ती जाती है। सूत्रोक्त इन दस अवस्थाओं को प्राप्त जीवों का स्वरूप इस प्रकार है (१) सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन प्राप्त जीव । (२) श्रावक के क्षयोपशम से आंशिक विरति उत्पन्न हो जाती है। (३) विरत - सर्वविरत साधु । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के क्षयोपशम से इनमें सर्वविरति प्रगट हो जाती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया - लोभ के (४) अनन्तवियोजक विसंयोजन में संलग्न साधक (५) दर्शनमोहक्षपक (६) उपशमक हो चुका है। में संलग्न श्रमण साधु । (७) उपशांतमोह साधक (८) क्षपक (९) क्षीणमोह (१०) जिन आगम वचन - स्नातक । - अणुव्रती साधक । इनमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय - - Jain Education International - दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय में संलग्न साधक मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों के उपशमन करने - - ― मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों को क्षय करने संलग्न जिस साधक का मोहकर्म क्षय हो चुका है। सर्वज्ञ केवली भगवान । ऐसा साधक, जिसका मोहनीय कर्म उपशांत पंच णियट्ठा पण्णत्तां, तं जहा पुलाए बउसे कुसीले णियंठे सिणाए । (निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गये है (१) पुलाक (२) बकुश (३) कुशील (४) निर्ग्रन्थ और (५) लेसा । पडि सेवणा णाणे तित्थे लिंग खेत्ते कालगइ संजम भगवती, स. २५, उ. ५, सूत्र ७५१ (( परिसेवना ( प्रतिसेवना), ज्ञान (श्रुत), तीर्थ, लिंग, क्षेत्र (स्थान), काल, गति (उपपाद), संयम और लेश्या (के भेदों से भी विचार करें 1 ) ) - For Personal & Private Use Only ... www.jainelibrary.org

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