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संवर तथा निर्जरा ४४७ दूसरा ध्यान अविचार है । वितर्क श्रुत होता है। अर्थ, व्यंजन और योगों की संक्रांति (संक्रमण-पलटना) विचार है ।
विवेचन- उक्त सूत्र ३९ से ४६ तक में शुक्लध्यान के स्वामी (अधिकारी), भेद, लक्षण और स्वरूप का कथन किया गया है।
पूर्वविद शब्द का अभिप्राय - जैन परम्परा में १४ पूर्व माने गये हैं और ये सभी पूर्व १२वें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत है तथा इनमें विशाल ज्ञानराशि संचित है ।
'पूर्वविद' से अभिप्राय इन पूर्वो के ज्ञाता से माना जाता है । किन्तु सभी साधक ऐसे विशिष्ट मेधावी नहीं होते कि वे पूर्वो में संचित सम्पूर्ण ज्ञानराशि को हृदयगंम कर सकें । तब प्रश्न यह उठता है कि जो पूर्व के ज्ञाता नहीं है, उनको शुक्लध्यान हो सकता है या नहीं ?
सामान्यतः यह माना जाता है कि जो पूर्वविद् नहीं है और अंगों के ज्ञाता हैं, उन्हें ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में भी धर्मध्यान ही होता है।
किन्तु इस सामान्य नियम के अपवाद मरुदेवी माता आदि है, जिन्हे पूर्वो का ज्ञान तो क्या, अंगों का भी ज्ञान नहीं था, फिर भी वे मुक्त हुए और क्योंकि कैवल्य तथा मुक्ति प्राप्ति के लिए शुक्लध्यान अनिवार्य है, अतः उन्हे शुक्लध्यान भी अवश्य हुआ । __ अतः सूत्रोक्त 'पूर्वविद्' शब्द का प्रसंगोपात्त अर्थ पूर्व के ज्ञाता' अथवा 'पूर्वाश्रित श्रुत के ज्ञाता' या 'पूर्वानुसारी श्रुत के ज्ञाता' किया जाना उचित प्रतीत होता है । स्थानांग सूत्रवृत्ति के उद्धरण में 'पुव्वगयसुयाणुसारेणं' आगत इन शब्दों से भी यही भाव ध्वनित हो रहा है ।
'एकाश्रये' शब्द का अर्थ - सूत्र ४३ में आये हुए ‘एकाश्रये' शब्द का अभिप्राय आगम उद्धृत गाथा (१) में प्रयुक्त 'जमेगदव्वंमि' शब्द के सन्दर्भ में ग्रहण करना चाहिए कि एक (किसी) द्रव्य के आश्रय से अथवा आलम्बन से पहला और दूसरा शुक्लध्यान होता है।
गुणस्थानों की दृष्टि से पहले दो शुक्लद्यान सूक्ष्मसंपराय, बादर संपराय, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान वालों के होते हैं । शुक्ल ध्यान की तीसरा और चौथा भेद केवली भगवान को होते हैं ।
योगों की दृष्टि से प्रथम शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्क सविचार में तीनों योगों (मन-वचन-काययोग) का अवलम्बन होता है, दूसरे एकत्व वितर्क अविचार में तीनों योगों में से किसी एक योग का, तीसरे सूक्ष्म
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