________________
संवर तथा निर्जरा ४३१ (२) दर्शनविनय - जिनोक्त तत्त्वों के प्रति दृढ़ श्रद्धा रखना, सम्यग्दर्शन में किसी का प्रकार दोष न लगाना, शंका आदि न करना दर्शनविनय
गुणियों की अपेक्षा दर्शनविनय के दो भेद है - (१) शुश्रुषाविनय - इसमें शुद्ध सम्यक्त्वियों का आदर-सम्मान-सत्कार करना, उन्हें उच्च आसन देना आदि आते हैं । और (२) अनाशातना विनय में अरिहंत भगवान, जिनोक्त धर्म, आचार्य, उपाध्याय, साधु स्थविर, कुल, गण, चतुर्विध संघ, शुद्धक्रियापालक, संभोगी, पाँच ज्ञानों से युक्त ज्ञानी पुरुष आदि श्रद्धापूर्वक भक्ति-गुणानुवाद करना सम्मिलित होता है। इस अपेक्षा से दर्शनविनय के १५ भेद माने गये है ।
(३) चारित्रविनय - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, पहिराविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात- इन पाँच प्रकार चारित्रों में से किसी एक काभी पालन करने वाले चारित्र साधकों की विनय करना, इनको श्रद्धा-भक्ति बहुमान देना चारित्रविनय है । __चारित्र और चारित्र पालन करने वाले साधकों की अपेक्षा इसके पाँच भेद है ।
(४) लोकोपचारविनय -गुरु, गणाधिक्य आदि के सम्मुख आने पर आगे बढ़कर उनका स्वागत करना, उनके आने पर खड़े हो जाना, जब वे जायें तो उनके पीछे-पीछे चलना, उनके सम्मुख दृष्टि नीची रखना, वन्दन करना, आसन आदि देना लोकोपचार विनय है ।
(५) मनविनय- गुणियों के प्रति मन में सदैव प्रशंसा के भाव रखना।
(६) वनचविनय - वचन से गुणियों का गुणोत्कीर्तन और संस्तुति करना ।
(७) कायविनय - सभी काय-सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ ऐसी करना, जिसेस निरभिमानता और विनम्रता प्रगट हो । आगम वचन
वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते तं जहा-आयरिवे आवच्चे... जाव संघवेयावच्चे ।
- भगवती श. २५, उ. ७, सू. २३५ ___ (वैयावृत्य दस प्रकार का कहा गया है, यथा - (१) आचार्यवैयावृत्य (२) उपाध्ययवैयावृत्त्य (३) शैक्षवैयावृत्य (४) ग्लान-वैयावृत्य (५) तपस्वीवैयावृत्य (६) स्थविर-वैयावृत्य (७) साधर्मी-वैयावृत्य (८) कुल वैयावृत्य (९) गण-वैयावृत्य और (१०) संघ-वैयावृत्त ।)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org