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४३६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र २७-२८
एक वस्तु (ध्येय) पर चित्त का अवस्थान अन्तर्मुहुर्त मात्र तक रहता है। छद्मस्थ और जिन (केवली भगवान) के योगनिरोध (मन-वचन-काय की क्रिया को रोकना-एक ध्येय पर अवस्थित करना) ही ध्यान है। ध्यान का लक्षण और उसका अधिकतम समय - उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।२७।
आमुहूर्तात् ।।२८।
उत्तम संहनन वाले (जीव) का एकाग्रचिन्ता (एक विषय में चित्त वृत्ति) का निरोध (स्थापन) करना ध्यान है ।
यह (ध्यान) (एक) मुहूर्त तक (अन्तर्मुहूर्त तक) ही रह सकता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र २७ में ध्यान के अधिकारी तथा ध्यान का लक्षण दिया गया है और सूत्र २८ में ध्यान का अधिकतम काल बताया गया है कि वह कितने समय तक स्थिर रह सकता है।
ध्यान का लक्षण - ध्यानशतक (२) में कहा गया हैजं थिरमज्झवसाणं झाणं स्थिर अध्यवसान ध्यान है ।
मन की दो अवस्थाएँ है - (१) चंचल और (२) स्थिर । इनमें से मन की स्थिर अवस्था ध्यान है ।।
अग्र शब्द का अर्थ मुख है और चिन्ता शब्द का अभिप्राय चिन्तन अथवा चित्त की वृत्ति है । चित्त की वृत्तियों का एक विषय पर अवस्थित अथवा एकाग्र हो जाना ध्यान है ।
"उत्तम संहनन' शब्द का रहस्य - उत्तम संहनन में भाष्य में दो संहनन स्वीकार किये गये हैं -(१) वज्रऋषभनाराच संहनन और (२) वज्रनाराच संहनन । किन्तु दिगम्बर परम्परा में तीसरा नाराच संहनन भी माना गया है।
यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से उत्तम संहनन वालों को ही ध्यान का अधिकारी कहा गया है क्योंकि मोक्ष उत्तम संहनन वालों को ही प्राप्त होता है। किन्तु सामान्य दृष्टि से देखा जाय तो आर्त-रौद्रध्यान के रूप में सभी संसारी जीवों के ध्यान होता है। किन्तु वह ध्यान संसार को बढ़ाने वाला है अतः उसे ध्यान-तप के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
दूसरी अपेक्षा यहाँ शुक्लध्यान (जो केलवज्ञान तथा मोक्ष का प्रत्यक्ष)
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