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संवर तथा निर्जरा ४२९ अपनी भूल को जानकर, उसका भली प्रकार से विशोधन करके, उन भूलों को पुनः न करना-दोषो का पुनः आचरण न करना, प्रायश्चित्त तप है।
भूल अथवा पाप की विशेषता के अनुसार उसके विशोधन की प्रक्रिया में भी अन्तर आ जाता है। इस अपेक्षासे प्रायश्चित्त तप के ९ भेद कहे गये
(१) गुरु अथवा ज्येष्ठ साधु के समक्ष अनजान में हुई अपनी भूल को निष्कपट भाव से निवेदन कर देना आलोचना है । अतिक्रम व्यतिक्रम आदि साधारणपापों की शुद्धि आलोचना से हो जाती है।
(२) दोष अथवा भूल के लिए हृदय में खेद करना और भविष्य में भूल न करने का संकल्प करके पूर्व में हुई भूल के लिए 'मिच्छाभि दुक्कडं' देना-मेरा वह पाप मिथ्या हो, ऐसा भावपूर्वक कहना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त'
(३) कुछ दोष अथवा पाप ऐसे होते हैं जो सिर्फ आलोचना और प्रतिक्रम से शुद्ध नहीं हो पाते । अतः इनकी विशुद्धि के लिए आलोचना (गुरु के समक्ष निष्कपट हृदय से निवेदन) और प्रतिक्रमण (हार्दिक अनुताप पूर्वक मिथ्या दुष्कृत दना) यह दोनों ही किये जाते हैं । इसे तदुभय प्रायश्चित्त कहा जाता है ।
(४). प्रमादवश अथवा भूल से कल्पनीय आहार, उपकरण आदि ग्रहण करने में आजाय और उसका ज्ञान बाद में हो, कि यह वस्तु तो मुझे ग्रहण करनी ही नहीं थी, तो उसी समय उसको अलग कर देना विवेक प्रायश्चित्त
(५) दुःस्वप्न आदि की शुद्धि के लिए समय की मर्यादा निश्चित करके, (यथा, एक घड़ी, एक मुहूर्त आदि) वचन तथा काय के व्यापारों को न करना, कायोत्सर्ग करना, व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त कहा जाता है।
(६) सचित्त के स्पर्श हो जाने पर उसकी दोष शुद्धि के लिए उपवास, बेला, तेला आदि बाह्य तप करना तपप्रायश्चित्त है ।
(७) अपवाद मार्ग का सेवन करने से अथवा जान-बूझकर कारणवश दोष लगाने पर जो कुछ दिनों की अथवा महीनों की दीक्षा पर्याय कम कर दी जाती है, वह छेद प्रायश्चित है ।
(८) जान बूझकर महाव्रतों में दोष लगाने पर दोषी व्यक्ति के साथ कुछ दिन, मास आदि तक संपर्क न रखना, उसे संघ से बाहर निकाल देना, परिहार प्रायश्चित्त कहलाता है ।
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