Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 449
________________ संवर तथा निर्जरा ४२५ । इसमें मुख्यतः घी, तेल, दूध, दही मिठाई - इन विकृतियों का त्याग किया जाता है। साथ ही मिर्च मसालेदार, गरिष्ठ वस्तुओं का भी त्याग होता इसमें प्रणीतरस का परित्याग और सादा सात्विक भोजन लिया जाता है। प्रमुख उद्देश्य है । ऐसा भोजन जो चित्तवृत्तियों को शांत रखे, उन्हें चंचल न होने दे और सात्विकता की ओर मन की वृत्तियों की झुकाव हो जाय, मन धर्म की ओर -सदाचार की ओर अभिमुख रहे ।। (५) विविक्तशय्यासन तप - सूत्रकार ने यह नाम दिया है, उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही नाम है किन्तु भगवती आदि आगमों में इस तप का नाम 'प्रतिसंलीनता' दिया है । इनमें सिर्फ नामों का ही भेद है, अर्थ में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं । यह दोनों नाम एकार्थवाची है । प्रतिसंलीनात का अर्थ है- अब तक जो इन्द्रिय, योग आदि बाह्य प्रवृत्तियों में लीन थे उन्हें अन्तर्मुखी बनना-आत्मा की ओर मोड़ना । इसके ४ प्रकार है - (अ) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता- इन्द्रियों को अपने विषयों की ओर जाने से रोकना । (ब) कषाय-प्रतिसंलीनता - क्रोध-मान-माया-लोभ इन कषायों का शमन करना । (स) योग-प्रतिसंलीनता - मन-वचन-काया के योगों की चपलता का निरोध । (द) विविक्त शय्यासन सेवना - एकान्त, शान्त, बाधारहित स्थान में सोना, बैठना; जहाँ दंश-मशक आदि क्षुद्र जीवों की बाधा न हो तथा स्त्री, पशु आद का निर्बाध आवागमन न हो । सूत्रकार ने सूत्र में इस अंतिम भेद 'विविक्त शय्यासन' का ही उल्लेख किया है; किन्तु अन्तिम में उससे पहले के सभी भेदों का ग्रहण हो जाता है, इस न्याय के अनुसार 'प्रतिसंलीनता तप' के सभी भेदों का इस अन्तिम भेद के उल्लेख से ग्रहण हुआ समझना चहिए । फिर भगवती आदि आगमों में भी प्रतिसंलीनता तप दिया गया है, अतः उनसे भी यह पुष्ट है। (६) काय-क्लेश तप- कायक्लेश का अर्थ है. शरीर को इतना अनुशासित कर लेना-साध लेना कि वह ठण्ड, गर्मी, आदि की बाधाएँ और उपसर्ग-परीषह सहन करते हुए भी स्थिर व अव्यथित रह सके । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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