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४१६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९: सूत्र १०-१७
अदर्शनपरीषह का कारण दर्शनमोहनीयकर्म और अलाभ परीषह का कारण अंतरायकर्म है ।
अचेल, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार - पुरस्कार ये परीषह चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से होते है।
शेष सभी परीषहों का कारण वेदनीय कर्म का उदय है ।
एक साथ, एक जीव में एक समय में एक से उन्नीस (१९) तक परीषह हो सकते हैं ।)
विवेचन
प्रस्तुत सूत्र संख्या १० - ११ - १२ में यह बताया गया है कि किस जीव को अधिक से अधिक कितने परिषह हो सकते हैं । साथ ही १७ वें सूत्रमें यह बताया है कि एक से लेकर उन्नीस (१९) तक अधिक से अधिक एक साथ परीषह हो सकते हैं । सूत्र १३ - १४-१५-१६ में यह निर्देश है कि किस परीषह के लिए कौन-सा कर्म कारण पड़ता है ।
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इन सभी सूत्रों में परीषहों की संभाव्यता की अपेक्षा से १७ वां सूत्र महत्वपूर्ण है । इससे यह फलित होता है कि कम से कम एक परीषह भी हो सकता है और अधिकतम परीषहों की संख्या विभिन्न जीवों की अपेक्षा सूत्र १०-११-१२ तथा १७ में बताई गई है।
इन सभी सूत्रों का यह भी अभिप्राय है कि अमुक संख्या में परीषह होना 'संभव' है, 'अनिवार्य' नहीं है. यानी यहाँ Probability का सिद्धान्त मानना चाहिए । दूसरे शब्द में (Possibility) संभाव्यता बताई गई है । यह सभी परीषह अवश्य ही हों, ऐसा अनिवार्य (Comspulsory ) नहीं है।
परीषों के कारण परीषहों के कारण है- कर्म अर्थात् कर्मों का उदय । इन बाईसों परीषहों के आधारभूत कारण चार कर्म हैं ज्ञानावरणीय (२) मोहनीय (३) अन्तराय सौर (४) वेदनीय ।
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ज्ञानावरणीयकर्म के कारण दो परीषह होते हैं (१) प्रज्ञा और (२) अज्ञान । दर्शनमोहनीय दर्शन परीषह का कारण है और चारित्रमोहनीय के उदय से सात परीषह होते हैं - ( १ ) अचेलकत्व (२) अरति (३) स्त्री (४) निषद्या (५) आक्रोश (६) याचना और (७) सत्कार - पुरस्कार ।
अन्तराय केवल एक अलाभ परीषह का कारण है । )
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.. वेदनीय का उदय ग्यारह परीषहों का जनक है- (१) क्षुधा (२) तृषा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) शय्या (८) वध (९) रोग (१०) तृणस्पर्श और (११) मल परीषह 1 )
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