________________
४१२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ८-९
बिच्छू, साँप आदि सभी प्रकार के जन्तु । इनके द्वारा त्रास दिये जाने पर मन में खिन्न न होना अपितु समभाव से उस पीड़ा को सहना ।
(६) अचेल - परीषह वस्त्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर अब में अचेलक हो जाऊंगा - ऐसा सोचकर मन में खिन्नता न लाना ।
आचार्य इसे नग्न परीषह भी मानते हैं ।
(७) अरति - परीषह स्वीकृत मोक्ष मार्ग की साधना में अनेक कठिनाइयाँ आने पर भी मन में उद्वेग अथवा मार्ग के प्रति अरुचि भाव न होने देना ।
(८) स्त्री - परीषह सुन्दर स्त्रियों के हाव-भावों से मन में विकृति न आने देना इसी प्रकार स्त्री-साधिका को भी पुरुष के प्रति मन में विकार न लाना ।
-
(९) चर्या - परीषह आगम में कहा गया है विहार चरिया मुणिणं पसत्था- मुनियों का विहार करना प्रशस्त है । साधक एक स्थान पर ही अवस्थित न हो अपितु भ्रमणशील रहे । चर्या यानी गमन करते समय खेद न करना ।
(११) शय्या - परीषह
खेद न करना ।
-
(१०) निषद्या - परीषह ध्यानस्थ मुनि के समक्ष भय का प्रसंग आ आजाय तब भी आसन से च्युत न होना । अथवा भय का प्रसंग न आये तो भी आसन से नहीं डिगना
कोमल, कठोर जैसी भा शय्या मिले, उसमें
(१२) आक्रोश - परीषह कटुक - कटोर - अप्रिय वचनों को सुनकर भी चित्त में क्रोध न लाना अपितु समभाव से सहना ।
-
(१६) रोग - परिषह
होने होने पर उसे पूर्वकृत
(१७) तृण-स्पर्श
सहना ।
Jain Education International
(१३) वध - परीषह
अपने को मारने-पीटने वाले व्यक्ति पर रोष
न करना, उस पीड़ा को समभाव से सहना, उसे अपना उपकारी समझना ।
(१४) याचना - परीषह भी दीनतापूर्वक याचना न करना; पूर्ण वचनों द्वारा उसे प्रताड़ित न
-
-
-
(१५) अलाभ - परीषह उपकरण आदि प्राप्त न हो सकें तो खिन्न न होगा ।
-
-
-
क्षुधा तृषा से अत्यधिक पीड़ित होने पर अथवा दाता न दे तो अभिमान या आक्रोश करना ।
-
संयम निर्वाह योग्य वस्तुएँ आहार तथा
किसी प्रकार की शारीरकि मानसिक व्याधि कर्मविपाक मानकर समभाव से सहना । तृण आदि की स्पर्शजन्य पीड़ा को समता से
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org