Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Kevalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Kamla Sadhanodaya Trust

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Page 434
________________ ४१० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ७ (८) संवर अनुप्रेक्षा दुःखद आस्रवो को रोकने - निरोध करने के सम्यक्त्व व्रत आदि उपायों का चिन्तन करना । ( ९ ) निर्जरा अनुप्रेक्षा कर्मों के क्षय करने के उपायों का, उनके स्वरूप का बार-बार अनुचिन्तन करना । - (१०) लोक अनुप्रेक्षा - लोक की शाश्वतता, अशाश्वतता आदि का चिन्तन करना । इस भावना से तत्त्वज्ञान विशुद्ध और दृढ़ होता है। साथ ही लोक के विष में जो अनेक प्रकार की भ्रमित धारणाएँ फैली हुई हैं, उनका भी निरसन हो जाता है, श्रद्धा शुद्ध हो जाती है । (११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा - बोधि का अभिप्राय है- सम्यग्ज्ञान, साथ ही सम्यक्दर्शन और सम्यग्चरित्र । इस रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति जीव को दुर्लभ है, इस प्रकार का अनुचिन्तन करके, बोधिप्राप्ति किन उपायों से और कैसे होती है, इनका बार-बार विचार करना । आमग वचन - (१२) धर्म अनुप्रेक्षा - श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, निश्चय - व्यवहार आदि की अपेक्षा, अथवा रत्नत्रयरूप धर्म का बार-बार चिन्तन करना । अनुप्रेक्षा को एक प्रकार से ज्ञान की जुगाली कहा जा सकता है, जैसे गाय आदि पशु खाने का बाद एकान्त शांत स्थान पर बैठकर जुगाली करके भोजन को सुपाच्य बना लेते हैं; उसी प्रकार सीखे / जाने हुए ज्ञान को अनुप्रेक्षाओं द्वारा हृदयंगम कर लिया जाता है ( बार-बार के चिन्तनमनन से वह ज्ञान दृढ़ हो जाता है, भली प्रकार जम जाता है, अन्तर चेतना तक व्याप्त हो जाता है, फिर कभी विस्मृत नहीं होता । ) - सम्मं सहमाणस्स.... णिज्जरा कज्जति । Jain Education International स्थनांग, स्थान ५, उ. १, सू. ४०९ बावीस परिसहा पण्णत्ता, तं जहा - दिगिंछापरीसहे १..... जाव दंसणपरीसहे २२। समवायांग, समवाय २२ (परीषह दो प्रयोजनों से सहन किये जाते हैं - (१) मार्ग से च्युत न होने -पीछे न हटने के लिए और (२) कर्मनिर्जरा के लिए । समभावपूर्वक परीषह सहन करने वाले को कर्मनिर्जरा होती है । - परीषह बाईस (२२) हैं - ( १ ) क्षुधापरीषह (२) पिपासापरीषह (३) शीतपरीषह (४) उष्णपरीषह (५) दंशमशकपरीषह (६) अचेलपरीषह (७) अरतिपरीषह (८) स्त्रीपरीषह ( ९ ) चर्यापरीषह (१०) निषद्या For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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