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संवर तथा निर्जरा
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मैले शरीर को देखकर ग्लानि न करना तथा
(१८) मल - परीषह स्नान आदि की इच्छा न करना, पसीने से भीगे हुए शरीर से जुगुप्सा न करना ।
(१९) सत्कार - पुरस्कार परीषह
सत्कार मिलने पर हर्षित और न मिलने पर खेद न करना, सम-भावों में निमग्न रहना
विद्वत्ता अथवा चमत्कारिणी बुद्धि होनेपर
(२०) प्रज्ञा परीषह
अभिमान न करना ।
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(२१) अज्ञान - परिषह
उद्यम और भरपूर प्रयास करने पर भी ज्ञान न हो पाये तो चित्त में उदास न होना । मन में हीन भाव न लाना । (२२) अदर्शन - परीषह दीर्घकाल तक साधना (तपस्या) करनेपर भी सूक्ष्मतथा अतीन्द्रिय ज्ञान या कोई विशिष्ट उपलब्धि न हो तो अपनी तपस्या को निष्पल समझकर श्रद्धा से विचलित न होना, अपितु श्रद्धा को दृढ़ रखना और साधना में उत्साह बनाये रखना । आगम में इसे 'दर्शन परीषह कहा है जिसका तात्पर्य स्वर्ग-नरक सम्बन्धी श्रद्धा अथवा दर्शन से डिगे नहीं । इस प्रकार इन परीषहों को समभावपूर्वक सहन करके, इन्हें विजय करने से - परीषहजय से संवर होता है ।
आगम वचन
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नाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तं जहा - पन्ना परीसहे नाणपरी - सहे य ।
( भगवन ! कौन - कोन से परीषह ज्ञानावरणीय कमी से आते हैं ? गौतम! दो परीषह आते हैं (१) प्रज्ञापरीषह और (२) अज्ञान परीषह ) वेयणिज् णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एक्कारसपरीसहा समोयरन्ति तं जहापंचेव आणुपुव्वी चरिया सेज्जा वहे य रोगे य । तणफास जल्लमेव य एक्कारस वेदणिज्जंमि ॥
( भगवन ! वेदनीय कर्म मे कौन-कोन से परीषह लिये जाते हैं ?
गौतम ! ग्यारह (११) परीषह लिये जाते हैं ।
(१) क्षुधा (२) तृषा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६)
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