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संवर तथा निर्जरा ४०९ यही बात उक्त सूत्र में कही गई है कि स्वाख्यात - भली-भांति समझे/जाने हुए तत्त्व का चिन्तन करना, मनन करना अनुप्रेक्षा है ।
अनुप्रेक्षाएँ १२ हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है
(१) अनित्य अनुप्रेक्षा - इन्द्रियों के विषय, धन-यौवन और यह शरीर आदि सभी अनित्य हैं, इस प्रकार चिन्तन करना ।
(२) अशरणानुप्रेक्षा - धन-वैभव, ज्ञातिजन आदि संसार में कोई भी शरण (रक्षक) नहीं है । मृत्यु, बीमारी आदि से कोई भी रक्षा नहीं कर सकता ,ऐसा चिन्तन करना ।
___ (३) संसारानुप्रेक्षा - यह चतुर्गतिक संसार दुःख से भरा है । एगन्त दुक्खे जरिए व लोयं - इस सम्पूर्ण संसार के सभी प्राणी दुःखी है, कहीं भी सुख नहीं है । देवों के सुख की भी अन्तिम परिणति दुःख ही है तब मनुष्य गति के सुख तो हैं ही किस गिनती में और पशुओं के दुःख तो प्रत्यक्ष ही दिखाई देते हैं तथा नरक गति तो घोर कष्टों की खानि है, इस प्रकार चिन्तन करना।
इस चिन्तन से व्यक्ति की सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति मिटती
(४) एकत्व अनुप्रेक्षा - मेरी आत्मा अकेली है इस प्रकार की भावना। एगो मे सासओ अप्पा णाणदंसणं-संजुओ - ज्ञान-दर्शन से संपन्न मेरी आत्मा शाश्वत है, अन्य सभी संयोग अस्थायी हैं । इस भावना से आत्म-प्रतीति दृढ़ होती है।
(५) अन्यत्व अनुप्रेक्षा - शरीर, कुटुम्ब, जाति, धन-वैभव आदि से मैं अलग हूँ, ये मेरे नहीं, मैन इंनका नहीं - ऐसी भावना ।
न संति बाह्या मम के चिनार्था, .. 'भवामि तेषां न कदाचनोऽहम् । इस प्रकार की भावना का सतत अनुचिन्तन करने से भेदविज्ञान दृढ़ होता है ।
(६) अशुचि अनुप्रेक्षा - यह शरीर अशुचि है, रक्त आदि निंद्य और घृणास्पद वस्तुओं से भरा है, इसकी उत्पत्ति भी घृणित पदार्थों से हुई है, इस प्रकार का अनुचिन्तन । इससे शरीर के प्रति ममत्वभाव क्षीण होता है।
(७) आस्रव अनप्रेक्षा - आस्रवों के अनिष्टकारी और दुःखद परिणामों पर चिन्तन करना । कर्मों का आगमन किन-किन कारणों से होता है, उन पर विचार करके उनके कष्टदायी रूप का चिन्तन करना ।
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