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संवर तथा निर्जरा ४०७ भावसत्य का अभिप्राय है- भावों में परिणामों में सदा सत्य का भाव रहे । करणसत्य का अभिप्राय करणीय कर्तव्यों की सम्यक् प्रकार से करना और योग-सत्य तो मन-वचन काया की सत्यता है ही ।
सत्यधर्म में ये तीनों ही अन्तर्निहित है ।
(६) संयम - मन-वचन-काया का नियमन । इसके मूल भेद २ है(१) प्राणीसंयम और (२) मन एवं इन्द्रियों का संयम ।
स्थानांग में इसके चार भेद बताये हैं मन-वचन-काया और उपकरण संयम । सूत्रकृतांग में संयम के सत्रह भेद' बताये गये हैं ।
इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से संयम के अनेक भेद हैं किन्तु मूल बात है आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही प्रवृत्तियों का नियमन एवं पवित्रता ।
(७) तप - आत्म-विशुद्धि की प्रक्रिया और दूसरे शब्दों में मलिन वृत्तियों का शोधन । कर्मक्षय हेतु की जाने वाली सभी साधनाएँ तप है।
तप का विशेष वर्णन इसी अध्याय में आगे किया गया है।
(८) त्याग - सचित्त-अचित्त-सभी प्रकार के परिग्रह उपरतिविरक्ति। हृदय में उत्सर्ग 'छोड़नी है' इस भाव का प्रवर्तन होना ।
(९) आकिंचन्य - ममत्व का अभाव । अपरिग्रही होना । (१०) ब्रह्मचर्य - काम-भोग विरति और आत्म-रमणता ।
इस सूत्र में इन सभी धर्मों को 'उत्तम' विशेषण से विशेषित किया गया है । 'उत्तम' का अभिप्राय उत्कृष्ट है, अर्थात् यह सभी धर्म उत्कृष्ट शुद्ध निर्मल भावों से ग्रहण/धारण किये जाने चाहिए ) आगम वचन -
अणिचाणुप्पेहा १. असरणाणुप्पेहा २, एगत्ताणुप्पेहा ३, संसारागुप्पेहा ४।
- स्थानांग, स्थान उ. १, सूत्र २४७ अण्णत्ते. (अणुप्पेहा) ५, अन्ने खलु णाति संजोगा अन्ने अहमंसि। असुअणुप्पेहा ६ - सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. १. सूत्र. १३
संयम के १७ भेद की गणना दो प्रकार से की गई है - (अ) ५ इन्द्रियों का निग्रह, ५ अव्रत का निरोध, ४ कषाय-विजय
और ३ योग की विरति=१७ (ब). ५ स्थावर, ४ त्रस की हिंसाविरति रूप नौ प्रकार संयम, १० प्रेक्षासंयम, ११ उपेक्षासंयम, १२. अपहृत्यसंयम, १३ प्रमृज्यसंयम, १४ काय संयम, १५ वाक्संयम, १६ मनःसंयम तथा १७ उपकरणसंयम।
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