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४०२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र १-२-३
(आश्रव का निरोध हो जाना (रुक जाना) संवर है ।
इस संवर के समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र यह भेद होते हैं । जिनके क्रमशः ५,३,१०,१२,२२ और ५ भेदों को जोड़ने से कुल भेद ५७ होते हैं ।
___ तप से (कर्मों की) निर्जरा होती है। संवर-निर्जरा के लक्षण और संवर के उपाय
आस्रवनिरोधः संवरः ।१।। स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ।२।। तपसा निर्जरा च । ३। आस्रवों का निरोध संवर है ।
वह संवर, गुप्ति, समिति, धर्म-पालन से, अनप्रेक्षाओं के चिन्तवन से, परीषहों पर विजय प्राप्त करने से, और चारित्र के पालन से - इस प्रकार ६ कारणों से) होता है।
तप से निर्जरा और (संवर) दोनों ही होते हैं ।
विवेचन : संवर का लक्षण - आस्रव अथवा कर्म-पुद्गलो के आगमन का निरोध अर्थात् उनका रुक जाना संवर है । 'संवर' शब्द का अर्थ ही है- निरोध ।
तात्त्विक भाषा में कर्मों के आगमन के निमित्त है- मन-वचन-काय के योग, एवं मिथ्यात्व तथा कषाय आदि । जब इनका निरोध होता है तो सुखःदुःख रूप फल देने वाले कर्मों के आगमन का अभाव हो जाता है, उसे ही संवर कहा जाता है ।
आस्रव का विशेष वर्णन छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में किया जा चुका
आस्रव का प्रतिपक्षी संवर है ।
साधना के विविध प्रकार की दृष्टि से इनके अनेक भेद उपभेद है। जैसे
(१) सम्यक्त्वसंवर- यह मिथ्यात्व द्वारा होने वाले कर्म आस्रव को रोकता है ।
(२) विरतिसंवर - अविरति भाव (हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन, परिग्रह आदि) से होने वाले आस्रव को रोकता है ।
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