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४०० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र २६ .
विशेष - (१) सम्यक्त्वमोहनीय (२) हास्य (३) रति और (४) पुरुषवेद- इन चार प्रकृतियों की गणना पुण्यरूप में इसी ग्रन्थ (तत्त्वार्थ सूत्र) में की गई है; अन्यत्र सभी ग्रन्थों में यह (सम्यक्त्व मोहनीय को छोड़कर, क्योंकि इसका उल्लेख पाप-पुण्य किसी भी विभाजन में कही भी नहीं मिलता है- इसका कारण यह है कि इसका बन्ध ही नहीं होता ) सभी प्रकृतियाँ, पाप-प्रकृतियों में गिनी गई हैं, अर्थात् हास्य, रति और पुरुषवेद को पापप्रकृति माना गया है।
पं. सुखलालजी ने इसी सूत्र के विवेचन के बाद टिप्पण में कहा है
"इन चार प्रकृतियों को पुण्यरूप मानने वाला मतविशेष बहुत प्राचीन है, ऐसा ज्ञात होता है; क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में उपलब्ध इनके उल्लेख के उपरान्त भाष्यवृत्तिकार ने भी मत भेद को दरसाने वाली कारिकाएँ दी हैं और लिखा है कि इस मंतव्य का रहस्य सम्पद्राय विच्छेद के कारण हमें मालूम नहीं होता। हाँ, चतुर्दशपूर्वी जानते होंगे ।''
इस भेद का मूल कहाँ है तथा आधार क्या है ? यह विज्ञों के लिए विचारणीय है।
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