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४०४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ४-५
योग तीन होने से गुप्ति भी तीन हैं - (१) मनोगुप्ति (२) वचनगुप्ति (३) कायगुप्ति ।
मनोयोग को दुष्ट संकल्पों, विचारों से रहित रखना, मन में दुर्ध्यान और दुश्चिन्तन न होने देना, मनोगुप्ति है ।।
वचनयोग का दुष्प्रयोग न करना, विवेकपूर्वक वचन योग को शांत रखना अथवा मौन का अवलम्बन लेना, वचनगुप्ति है ।
काययोग का नियमन तथा निश्चलन कायगुप्ति है. 1
यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि गुप्ति निवृत्ति रूप है, प्रवृत्ति रूप नहीं है । गुप्ति में मन-वचन-काय तीनों के अशुभ योगों का निरोध करना ही मुख्य है। आंगम वचन
पंचसमिईओ पण्णत्ता, तं जहा
ईरियासमिई, भाषासमिई, एसणासमिई, आयाणंभंडमत्तनिक्खेवणा समिई, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्ल परिठावणिया समिई ।
- समवायांग, समवाय ५ (समिती पाँच प्रकार की होती हैं - (१) ईर्यासमिति (२) भाषासमिति, (३) एषणासमिति, (४) आदानभण्डमात्रनिक्षेपणासमिति (आदान निक्षेपण समिति) और (५) उच्चार (पुरीष) प्रस्रवण (मूत्र) खेल (निष्ठोपन अथवा थूक) सिंघाण (नाक का मैल) जल्ल (पसीना) परिष्ठपना (डालना) समिति । समितियों का नामोल्लेख - .
ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गा : समितय : ।५।
(१) ईर्या (२) भाषा (३) एषणा (४) आदान-निक्षेप और ९५) उत्सर्ग यह पांच समितियाँ है ।
विवेचन - सूत्र ४ में जो 'सम्यग्' शब्द आय है, उसकी अनुवृत्ति यहाँ इस सूत्र में भी की जायेगी, क्योंकि ईर्या, भाषा आदि शब्द सामान्य हैं, यह संवर तभी बन सकेंगे, जबकि 'विवेकपूर्वक' ऐसा विश्लेषण इन से पहले लग जाय ।
उदाहरणार्थ - ईर्या का अर्थ चलना और भाषा का अर्थ बोलना है। अपने इस रूप में यह संवर नहीं है । संवर तो तभी होगा, जब व्यक्ति विवेकपूर्वक गमन क्रिया करेगा, विवेकपूर्वक वचन बोलेगा ।
अतः संवर के प्रसंग में इनके यह नाम होंगे - (१) सम्यगईर्या, (२)
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