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३९८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र २५-२६
६. ये पुद्गल सूक्ष्म होते हैं, स्थूल नहीं होते ।
इन विशेषताओं को जानने के बाद यह जिज्ञासा सहज ही उठती है कि प्रदेशबन्ध तो सामान्य रूप से अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धों से होता है और फिर इनमें से ज्ञानावरणादिक प्रकृतियों की रचना होती है तो आठों कर्मप्रकृतियों को कितना-कितना भाग मिलता है, यानी बँध हेए कर्मपुद्गलों का कर्म-प्रकृतियों में विभाजन किस प्रकार होता है ?
इसका समाधान यह है
प्रदेशबंध द्वारा बँधे हुए अनन्तानन्त पुद्गलों में आयुकर्म को सबसे कम भाग मिलता है और नामकर्म को आयु की अपेक्षा कुछ अधिक गोत्र कर्म को नामकर्म के समान भाग की प्राप्ति होती है ।
इनसे कुछ अधिक भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय को प्राप्त होता है तथा इन्हें प्राप्त होने वाला भाग समान है ।
इनसे भी अधिक भाग मोहनीयकर्म को प्राप्त होता है और सबसे अधिक भाग वेदनीय कर्म को ।
इस विभाजन का आधार अथवा रहस्य इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में निहित है । (जो पृष्ठ ३९५ पर दी हुई तालिका में स्पष्ट रूप से अंकित की गई है ।) सिर्फ वेदनीय कर्म का भाग इसका अपवाद है, इसका कारण यह है कि जीव को वेदनीय कर्म का ही वेदन (सुखःदुःख रूप) अधिक और प्रति समय स्पष्ट रूप से होता रहता है । अन्य कर्म जैसे आयु वेदन तो नहींवत् है, अन्य कर्मों के फल की अनुभूति भी जीव उतनी तीव्रता से नहीं करता जितनी तीव्रता से वेदनीय के फल की अनुभूति करता है । इसी कारण वेदनीय का भाग सर्वाधिक है । आगम वचन -
___ सायावेदणिज्न....मणुस्साउए देवाउए सुहणामस्स णं.उच्चागोत्तस्स. इत्यादि ॥ -प्रज्ञापना, पद २३, उ.१
(सातावेदनीय..मनुष्यायु, देवायु, शुभ नाम, उच्च गोत्र आदि । (यह पुण्य रूप है ।) पुण्य प्रकृतियासद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायु मागोत्राणि पुण्यम् ।२६।
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