________________
बन्ध तत्त्व
३९७
सूत्र २४ में जो 'च' शब्द दिया है उसका विशेष अभिप्राय है। क्योंकि निर्जरा कर्मों के फल प्रदान के बाद तो होती ही है किन्तु तपस्या द्वारा भी होती है। इस संबंधी सूत्र अगले अध्याय में दिया गया है। यहाँ तो 'च' शब्द से सिर्फ सूचन मात्र किया गया है ।
आगम वचन
सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणन्तगं । गण्ठियसत्ताइयं, अन्तो सिद्धाण आहियं । सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं ।
सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बद्धगं । - उत्तरा३३/१७-१८ ( सब कर्मों के प्रदेश अनन्त है, उनकी संख्या अभव्य राशि से अधिक और सिद्धराशि से कम है।
सब जीवों का एक समय का कर्म-संग्रह छह दिशाओं से होता है और आत्मा के सब प्रदेशों में सब प्रकार से बँध जाता है।
प्रदेशबन्ध का स्वरूप
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः
। २५ ।
नाम अर्थात् कर्मप्रकृतियों के कारण और सभी ओर से योगों की क्रिया द्वारा अनन्तानन्त प्रदेश वाले (कर्म) पुद्गलस्कंध आत्मा के सभी प्रदेशों में सूक्ष्म रूप से एक क्षेत्र अवगाह होकर दृढ़तापूर्वक बँध जाते हैं, वह प्रदेशबन्ध है ।
विवेचन प्रस्तुत सुत्र में प्रदेशबन्ध का स्वरूप बताया गया है। इस सूत्र में निम्न बाते प्रतिफलित होती है
१. आत्मा के साथ बँधने वाले कर्मपुद्गलो से ही ज्ञानावरणादि आठों मूल प्रकृतियो तथा उत्तर - प्रकृतियों की रचना होती है।
-
-
२. यह कर्मपुद्गल मन-वचन-काय के योगों की विशेषता - हलनचलन क्रिया आदि से छहों दिशाओं (सभी दिशाओं) से संग्रह किये जाते हैं। ३. इन पुद्गलस्कंधों की संख्या अनन्तानन्त होती है।
४. यह पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों में दृढ़तापूर्वक स्थिर रूप से बंध जाते हैं।
५. बँधने का अभिप्राय एक क्षेत्रावगाह है । जिन आकाश प्रदेशों में आत्मा अवस्थित है, उन्ही में यह कर्म - पुदगल भी अवस्थित हो जाते हैं, उसी प्रकार जैसे लौह-पिण्ड में अग्नि के कण प्रविष्ट हो जाते हैं।
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org