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३९२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १३
विवेचन - अन्तराय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ है- (१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय।
अन्तराय का अर्थ विघ्न है । उपरोक्त पाँचों प्रकृतियाँ जीव के दान लाभ आदि में विघ्न रूप होती है ।
१. दानान्तराय कर्म- दान की सामग्री, उत्तम पात्र, अवसर आदि हो और दान का सुफल जानते हुए भी देने में उत्साह न होना, दानान्तराय कर्म के उदय का परिणाम है ।
२. लाभान्तराय कर्म - दाता, देय वस्तु सभी उपलब्ध होते हुए भी जीव को इष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना, इस कर्म के उदय का प्रभाव है।
. ३. भोगान्तराय कर्म - भोगों की इच्छा रखते हुए तथा भोग सामग्री होते हुए भी न भोग पाना इस कर्म के उदय का प्रभाव होता है ।
४. उपभोगान्तराय कर्म- उपभोग्य वस्तु के भोग में इस कर्म का उदय बाधक बनता है ।
५. वीर्यान्तराय कर्म - उदय से नीरोग और बलवान होते हुए भी जीव सत्वहीन जैसा आचरण करने लगता है । उसके बल, वीर्य, पराक्रम आदि क्षीणप्राय हो जाते हैं । उसका उत्साह, उमंग, साहस, शक्ति ,क्षमता आदि आत्मिक शक्तियों का ह्रास हो जाता है । आगम वचन -
उदही सरिसनामाणं, तीसइ कोडिकोडीओ । उक्कोसिया ठिइ होइ, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ।।१९।। आवरणिज्जाण दुण्हंपि, वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्मम्मि, ठिइ एसा वियाहिया ॥२०॥ उदहीसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडीओ । मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ।।२१॥ उदहीसरिसनामाणं, वीसई कोडिकोडीओ । नामगोत्ताण उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥२३॥ तेत्तीस सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया । ठिइ उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥२२।
- उत्तराध्ययन ३३
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