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बन्ध तत्त्व
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प्रकार पट्टी बँधने से कुछ भी नहीं दिखाई देता उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जीव को अवबोध में बाधा पहुँचती है ।
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२. दर्शनावरण कर्म का स्वभाव परदे जैसा है । बीच में परदा पड़ा होने से मनुष्य दूसरी तरफ की चीज नहीं देख पाता, इसी प्रकार यह कर्म भी देखने में बाधक बनता है ।
३. वेदनीय कर्म शहद लपेटी छुरी के समान है । शहद चाटने से जीव को सुख मिलता है किन्तु छुरी की धार से जीभ कट जाती है तब उसे दुःख होता है । सभी संसारी सुखों की परिणति भी इसी प्रकार दुःख ही है।
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४. मोहनीय कर्म मदिरा जैसा है । नशे में बेभान मनुष्य जैसे अपने पराये को नहीं पहचान पाता, वैसे ही मोहनीय कर्म आत्मा के स्वर - परविवेक को विलुप्त कर देता है, मोहग्रस्त जीव अपना हिताहित नहीं सोच पाता । ५. आयु कर्म लोहे के बेड़ी (बन्दीगृह) के समान है । जिस प्रकार अपराधी को निश्चत समय तक ( जितने समय की उसे सजा मिली है उतने समय तक) बन्दीगृह में रहना पड़ता है, उसी प्रकार जीव को अपनी आयु पर्यन्त शरीर में रहना पड़ता है ।
६. नाम कर्म चित्रकार के समान है । जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न प्रकार के चित्र बनाता है उसी प्रकार नाम कर्म भी विभिन्न प्रकार के शरीरों का निर्माण करता है ।
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भी बन जाते हैं । उसी
७. गोत्र कर्म की उपमा कुम्हार से दी जाती है । जिस प्रकार कुम्हार के बनाए कुछ घड़े पूजा स्थान पर रखे जाते हैं, पूजनीय - प्रशंसनीय बनतें हैं तो कुछ में मदिरा भरी होने के कारण निन्दीय प्रकार गोत्र कर्म के कारण जीव ऊँच तथा नीच कुल में जन्म ग्रहण करता है। ८. अन्तराय कर्म का स्वभाव कोषाध्यक्ष के समान है । जैसे राजा की आज्ञा होने पर भी भंडारी याचक को धन प्राप्ति में बाधक बन जाता है । उसी प्रकार अन्तराय कर्म भी साधन सामग्री होते हुए भी भोग आदि में विघ्न डाल देता है ।
मूल प्रकृतियों के भेद
यह भेद तीन अपेक्षाओं से किये जाते है
शक्ति तथा ३ पुण्य-पाप ।
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घातशक्ति की अपेक्षा से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय घाती कर्म है; क्योंकि यह जीव की ज्ञान - दर्शन - चारित्र - सुख - वीर्य
१. घातशक्ति. २. आघात
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