________________
बन्ध तत्त्व ३७१ (१) अनन्तानुबन्धी क्रोध- शास्त्र में इस क्रोध की उपमा पर्वत की दरार से दी गई है । जिस प्रकार पर्वत की दरार का मिलना अत्यन्त कठिन है, इसी प्रकार यह क्रोध भी शांत नहीं हो पाता है।
(२) अनन्तानुबन्धी मान - वज्र का स्तंभ टूट जाता है, पर झुकता नहीं । उसी प्रकार यह मान भी विगलित नहीं हो पाता ।
(३) अनन्तानुबन्धी माया- उसी प्रकार वक्र होती है जैसे बाँस की जड़-गांठ की वक्रता । यह सीधी-सरल किसी भी उपाय से नहीं हो पाती।
(४) अनन्तानुबन्धी लोभ - वस्त्र पर गले किरमिची रंग जैसा होता है, जिसका छूटना प्रायः असंभव है ।
(ख) अप्रत्याख्यानावरण कषाय - यह जीव को पापों से किंचित भी विरत नहीं होने देता, जीव श्रावकव्रतों का भी पालन नहीं कर पाता ।
सामान्यतः यह एक वर्ष तक रहता है, यदि एक वर्ष सेअधिक रह जाय तो अनन्ताननुबन्धी में परिणत जो जाता है ।
(५) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध - सूखे तालाब की दरार के समान होता है। जैसे-पानी के संयोग से तालाबा की सूखी मिट्टी में पड़ी दरार समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार यह क्रोध भी अधिक परिश्रम से शांत हो जाता है
(६) अप्रत्याख्यानावरण मान- अधिक परिश्रम से नम जाता है, जैसे अस्थि के स्तम्भ को विशेष प्रयोगों- उपायों से नमाया जा सकता है।
(७) अप्रत्याख्यानावरण माया - अधिक परिश्रम से सरलता में परिणत हो सकती है जैसे मेंढ़े का सींग विशेष प्रयोगों से सीधा हो जाता है।
(८) अप्रत्याख्यानावरण लोभ - वस्त्र पर लगे कीचड़ की तरह अधिक परिश्रम से साफ किया जा सकता है ।
यहाँ अधिक परिश्रम, प्रयोग और उपाय का अभिप्राय आत्मा द्वारा धर्म-चिन्तन, गुरुवन्दन, उपदेश-श्रवण आदि शुभ क्रियाएँ हैं ।
(ग) प्रत्याख्यानावरण कषाय - की स्थिति चार मास की है । इसके प्रभाव से जीव साधु व्रत अंगीकार नहीं कर पाता ।
(९) प्रत्याख्यानावरण क्रोध - बालू में खींची गई लकीर के समान होता है । जैसे बालू की लकीर हल्की हवा से ही मिट जाती है, उसी तरह यह क्रोध भी थोड़े से अल्प प्रयास से शांत हो जाता है ।
(१०) प्रत्याख्यानावरण मान- काष्ट स्तम्भ के समान है जो थोड़े से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org