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३७८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १२
(६) संघातननामकर्म - यह कर्म पहले ग्रहण किये हुए शरीर के पुद्गलों पर नये ग्रहण किये हुए शरीर-योग्य पुद्गलो को व्यवस्थित ढंग से स्थापित करता है । इसके उपरान्त वे नये पुद्गल पहले पुद्गलों से गाढ़ रूप से परस्पर एक दूसरे से बँध जाते हैं ।
पाँच प्रकार के शरीर योग्य पुदगलो को स्थापित करने की दृष्टि से इस कर्म के भी पाँच भेद हैं - (अ) औदारिकशरीरसंघातननामकर्म (ब) वैक्रि यशरीरसंघातननामकर्म (स) आहारकशरीरसंघातननाम कर्म (द) तैजसशरीरसंघातननामकर्म (य) कार्मणशरीरसंघातननामकर्म । .
जो कर्म औदारिकशरीरयोग्य नये ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों को पूर्वगृहीत, परिणत औदारिकशरीर-पुद्गलों को परस्पर समीप लाकर, सटाकर व्यवस्थितरूप से स्थापित कर दे, जिससे वे बँधने योग्य हो जाये, उस कर्म को औदारिकशरीरसंघातननामकर्म कहा गया है ।
इसी प्रकार अन्य चारों शरीर संघातन नामकर्म को समझा जा सकता
वस्तुस्थिति यह है कि संघातननामकर्म बन्धननामकर्म की पूर्वभूमिक निभाता है । जिस प्रकार इलैक्ट्रिक बैल्डिंग करने वाला धातुओं ने दो टुकड़ो को पहले व्यवस्थित करके एक-दूसरे के समीप रखता है, एक-दूसरे को कौने आदि सभी दृष्टियों से मिलाता है, फिर सटाकर-चिपकाकर रखता है, दोनों टुकड़ों के बीच में थोड़ा भी स्थान/स्पेस (Space) नहीं रहने देता, जिससे वे सही ढंग से जुड़ जायें । यह काम संघातन नामकर्म का है । २३-२७
(७) संहनननामकर्म - इस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संरचना और व्यवस्था एवं उनकी परस्पर संस्थिति एवं बंध होता है । अस्थियाँ (bones) सिर्फ औदारिकशरीर में ही होती हैं इसलिए इसका प्रभाव भी सिर्फ औदारिकशरीर में ही होता है, अन्य शरीरों में नहीं ।
अस्थियों की व्यवस्था, परस्पर बंध-सम्बन्ध, दृढ़ता आदि की विशेषता से इस कर्म के छह उत्तर भेद हैं ।
(अ) वज्रऋषभनाराचसंहनननाकर्म - वज्र का अर्थ कील, ऋषभ का अर्थ वेष्टन पट्ट और नाराच का अर्थ मर्कट बंध है । इस संहनन में संधि की दोनों हड्डियाँ परस्पर एक दूसरी से आँटी लगाए हुए होती हैं, उन पर तीसरी हड्डी का वेष्टन या पट्टा कसा होता है और चौथी हड्डी इनमें कील की तरह मजबूती से फँसी होती है ।
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