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बन्ध तत्त्व ३८३ (चलने का ढंग या तरीका) पर पड़ता है । चाल दो प्रकार की हो सकती है - शुभ अथवा अशुभ । अतः इस कर्म के भी दो भेद है
(अ) शुभविहायोगतिनामकर्म - के उदय से जीव की चाल शुभ होती है, वह सुहावना लगता और (ब) अशुभविहायोगितनामकर्म के उदय से उसकी चाल अशुभ या असुहावनी होती है । (६४-६५)
इस प्रकार १४ पिण्ड प्रकृतियों के (गति नाम के ४, जाति नाम के ५ शरीरनाम के ५, अंगोपांगनाम के ३, शरीरबंधननाम के ५, संघातननाम के ५, संहनननाम के ६, संस्थाननाम के ६, वर्णनाम के ५, गंधनाम के २, रसनाम के ५, स्पर्शनाम के ८, आनुपूर्वीनाम के ४ और विहायोगतिनाम के २ भेद । यह (४+५+५+३+५+५+६+६+५+२+५+८+४+२=६५) कुल उत्तर भेद ६५ हैं ।
___ आठ प्रत्येक प्रकृतियां - इनकी कोई अन्तर प्रकृति न होने से यह प्रत्येक प्रकृतियाँ कहलाती है । यह आठ हैं -
(१) पराघातनामकर्म के कारणं व्यक्ति दूसरे बलवान को भी दर्शन अथवा वाणी से निष्पभ्र करने में समक्ष होता है ।
इसका दूसरा लक्षण यह भी है कि दूसरे को आघात पहुचाने वाले सींग नख आदि अवयव जिससे प्राप्त हों वह पराघातनाम कर्म है ।
(२) उच्छ्वासनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छ्वास लेता और छोड़ता है ।
(३) आतपनामकर्म - इस कर्म के प्रभाव से जीव का स्वयं का शरीर तो गर्म नहीं होता; किन्तु उष्ण प्रकाश करता है ।
(४) उद्योतनामकर्म - शीतल प्रकाश करने वाले शरीर की प्राप्ति। __ (५) अगुरुलघुनामकर्म - न अत्यन्त भारी न अत्यधिक हल्का शरीर प्राप्त होना ।
(६) तीर्थकरनामकर्म - इसके उदय से जीव को धर्म व तीर्थ का प्रवर्तन करने की क्षमता प्राप्त होती है धार्मिक जगत में यह सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति मानी गई है।
(७) निर्माणनामकर्म - इसके कारण जीव के अंग-उपांग यथास्थान व्यवस्थित होते हैं ।
(८) उपघातनामकर्म - इसके उदय से जीव के शरीर में ऐसे अंगउपांग निर्मित हो जाते हैं, जिनसे वह स्वयं ही कष्ट पाता हैं; जैसे प्रतिजिह्वा आदि ।
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