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३८४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १२ ___ यह आठ प्रत्येक प्रत्येक प्रकृतियां हैं । त्रसदशक में दस प्रकृतियां होती हैं । ये निम्न है -
(१) सनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय की प्राप्ति होती है । यह शरीर दो इन्द्रिय से लकर पाँच इन्द्रिय वाले जीवों को प्राप्त होता है । ऐसे जीव अपने हित की प्राप्ति और अहित निवृत्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को गमन क्रिया करते हैं; चलते-फिरते हैं ।
(२) बादरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल) शरीर की प्राप्ति होती है ।
(३) पर्याप्तिनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियों से युक्त होता है । पर्याप्ति आतमा की एक विशेष शक्ति है जो आहार शरीर आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें आहार, शरीर रूप परिणत करती है । यह शक्ति पुदगलों के उपचय से अभिव्यकस्त होती है जिस कर्म के कारण आत्मा की यह शक्तिविशेष स्फुटित होती है, उसे पर्याप्ति नामकर्म कहते हैं।
पर्याप्ति छह हैं - १. आहारपर्याप्ति २. शरीरपर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनःपर्याप्ति
इन छहों पर्याप्तियों द्वारा ग्रहण किये हुए पुदगल समान नहीं हैं, सब अलग-अलग वर्गणाएं हैं , इस बात को आधुनिक विज्ञान ने भी सत्यापित कर दिया है । विज्ञान का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि भाषा की (ध्वनि तरेंगे) अलग होती है और शरीर निर्माणकारी पुद्गल दूसरे प्रकार के ।
___ यहाँ एक जिज्ञासा हो सकती है कि उच्छवासनामकर्म और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति नामकर्म में अन्तर क्या है? क्योंकि दोनों का ही काम श्वसाचोच्छ्वास लेना और छोड़ना है ।
इसका समाधान यह है कि इन दोनों में कार्य-कारण का भेद है । श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति तो जीव को श्वासोच्छ्वासयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करने में सक्षम बनाती हैं; जबकि उच्छ्वासनामकर्म के उदय से वह शक्ति कार्य रूप में परिणत होती है, जीव श्वासोच्छ्वास की क्रिया करता दिखाई देता है ।
सामान्य शब्दों में श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति को शक्ति और उच्छ्वासनामकर्म को अभिव्यक्ति भी कहा जा सकता है । किन्तु यहाँ
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