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३७६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १२
तिर्यंचगति, मनुष्यगति यह चार भेद है । इसी प्रकार जाति आदि के भी अन्तरभेद हैं । इन भेदों को गणना में लेने से नामकर्म की ९३ प्रकृतियाँ हो जाती है ।
नाम कर्म की इन ९३ प्रकृतियों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है। (१) गतिनाम कर्म इसके उदय से जीव को सुख-दुःख भोगने योग्य पर्याय अथवा गति की प्राप्ति होती है। इसके चार भेद हैं - नरकगतिनाम, तिर्यंचगतिनाम, मनुष्यगतिनाम, देवगतिनाम | १-४
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(२) जातिनामकर्म - अनेक वस्तुओं मे समानता द्योति करना जाति है । जैसे- काले, गोरे, यूरोपियन, अमेरिकन, भारतीय आदि सभी मानव मानवजाति कहलाते हैं । इसी प्रकार इस कर्म के उदय से भी जीवों को पांच जातियों में विभाजित किया गया है । इस विभाजन का आधार हैं - इन्द्रियाँ - इन्द्रियों की प्राप्ति ।
एकेन्द्रियजातिनामकर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है; क्योंकि उसे एक स्पर्शेनेन्द्रिय ही प्राप्त होती है । इसी प्रकार द्विदिन्द्र, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय यह जीव की जातियाँ उसे प्राप्त इन्द्रियों के अधार पर मानी जाती है और यह प्राप्ति उसे क्रमसः द्वीन्द्रियानामकर्म, त्रीन्द्रियनामक मर्क, चउरिन्द्रियनामकर्म और पंचेन्द्रियनामकर्म के उदय से होती है ५-९ ।
(३) शरीरनामकर्म इस कर्म के उदय से जीव को शरीर की प्राप्ति होती है । यह कर्म पाँच प्रकार का है ।
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औदारिक शरीरनामकर्म इससे जीव को औदारिक शरीर प्राप्त होता है । इस शरीर की रचना स्थूल पुदग्लों से होती है। सभी मनुष्यों और तिर्यंचो का शरीर औदारिक होता है
वैक्रियशरीरनामकर्म
इस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर की रचना होती है जो सूक्ष्म पुद्गलो से निर्मित होता है तथा जिससे विभिन्न प्रकार के रूप बनाये जा सकते हैं। ऐसा शरीर देव - नारकियों को जन्म से प्राप्त होता है, कुछ तिर्यंचो को भी इस शरीर की उपलब्धि होती है तथा तप आदि से मनुष्य भी प्राप्त कर सकते हैं ।
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आहारकशरीरनामकर्म इस कर्म के उदय से चौदह पूर्वधर संयमी श्रमण आहरकशरीर की रचना कर सकते हैं । उन्हें तपस्या से ऐसी लब्धि प्राप्त होती है । यह शरीर लब्धि द्वारा निर्मित होता है ।
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तैजसशरीरनामकर्म इस कर्म के उदय से तैजस शरीर की प्राप्ति कारण जीव के शरीर में दीप्ति रहती है । यह होता है ।
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जीव को होती है । इसी के शरीर प्रत्येक संसारी जीव
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