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३७४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ११ सम्बन्ध में होनेवाली आशंका-कुशंका के कारण होने वाले जड़ता तथा पलायन के संवेग (Fear Feeling) ।
६. जुगुप्सा - घृणा के भाव (Feelings of Hatred); और दूसरे के कुल-शील में दोष लगाना, अपमान-तिरस्कार करना ।
७. स्त्रीवेद- पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा ! यह कामाग्नि छाने (उपले-कण्डे) की आग के समान होती है, जो ऊपर तो राख से ढकी रहती है और अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है ।
८. पुरुषवेद - स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा यह कामाग्नि, तृण की अग्नि के समान है जो शीघ्र ही जल उठती है और जल्दी ही बुझ भी जाती है ।
९. नपुंसकवेद - स्त्री-पुरुष दोनों से रमण करने की इच्छा । यह कामाग्नि नगर-दाह के समान दीर्घकाल तक ठंडी नहीं होती, सुलगती रहती
१०. नपुंसकवेद - स्त्री-पुरुष दोनों से रमण करने की इच्छा । यह कामाग्नि नगर-दाह के समान दीर्घकाल तक ठंडी नहीं होती, सुलगती रहता
इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल (दर्शन मोहनीय की ३ और चारित्रमोहनीय के अन्तर्गत कषाय मोहनीय की १६ तथा नोकषाय मोहनीय की ९) २८ प्रकृतियाँ हैं । (तालिका पृष्ठ ३७३ पर देखे ) आगम वचन -
आउए णं भंते ! कम्मे कइविहे पण्णत्ते ? ___ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-णेरइयाउए तिरियआउए मणुस्साउए देवाउए ।
__- प्रज्ञापना पद २३, उ .२ (भगवन् ! आयुकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
गौतम ! चार प्रकार का कहा है, यथा (१) नरक आयु (२) तिर्यंच आयु (३) मनुष्य आयु और (४) देव आयु । आयुकर्म की उत्तरप्रकृतियां -
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि । ११।
(आयुकर्म के चार भेद हैं - (१) नारकायु (२) तिर्यंच आयु (३) मनुष्य आयु और (४) देवायु ।
विवेचन - आयुकर्म के कारण ही 'अमुक मनुष्य पशु आदि जीवित है' यह कहा जाता है । नारक आदि आयु का अभिप्राय यही है कि जीव का उन गतियों में उत्पन्न होना और जीवित रहना ।
आयुकर्म की विशेषता यह है कि इसका उदय जन्म ग्रहण करते ही (गर्भज जीवों की अपेक्षा-गर्भ में आने के प्रथम समय से ही) शुरू हो जाता है और प्रति समय भोगा जाता है ।
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