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३७० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १० (मोहनीय की २५ । इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल उत्तरप्रकृतियों को संख्या २८ है ।
इनका स्वरूप निर्देश इस प्रकार है -
(अ) मिथ्यात्वमोहनीय का सामान्य लक्षण यह है कि यह जीव को सम्यक्त्व प्राप्ति में बाधक बनता है । (इसके भेद-प्रभेदों आदि का विस्तृत विवेचन इसी अध्याय के प्रथम सूत्र में किया जा चुका है) इसकी तीन उत्तर प्रकृतियाँ है -
(१) मिथ्यात्वमोहनीय - यह जीव की यथार्थ तत्त्वों में रुचि नहीं होने देता । जीव यथार्थ आत्मस्वरूप और उसके श्रद्धान की ओर उन्मुख नहीं होता ।
(२) सम्यक्त्वमोहनीय - यह प्रकृति तो मिथ्यात्वमोहनीयकर्म की ही है, किन्तु इसमें मिथ्यात्व का प्रभाव बहुत कम रहा जाता है । यह सम्यक्त्व का नाश तो नहीं कर सकती; किन्तु (चल-मल-अगाढ़ दोष लागकर उसे (सम्यक्त्व को) मलिन बनाती रहती है)।
(३) सम्यमिथ्यात्व - इसके प्रभाव से जीव में तत्त्वों के श्रद्धान और अश्रद्धान का मिला हुआ भाव रहता है, दही-गुड़ का सा मिश्रित स्वाद समझना चाहिए । जीव की स्थिति डाँवाडोल रहती है ।
(ब) चारित्रमोहनीयकर्म - यह आत्मा के चारित्रगुण का घात करता है । इसके दो भेद हैं - (१) कषायमोहनीय और (२) नोकषायमोहनीय ।
(१) कषाय मोहनीय - वह है जिससे संसार-परिभ्रमण की वृद्धि होती है। क्योंकि कषाय ही कर्मबंध का विशिष्ट हेतु हैं, कषाय के कारण ही कर्मबंध होता है और जब तक बंध है तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता।
कषायमोहनीय के मूल भेद चार हैं - (१) क्रोध (२) मान (३) मया (४) लोभ । इन चारों के पुनः चार-चार भेद हैं - (१) अनन्तानुबंधी ९२) अप्रत्याख्यानी (३) प्रत्याख्यानी और (४) संज्वलन । इस प्रकार कषाय मोहनीय के कुल सोलह (१६) प्रकार हैं ।
(क) अनन्तानुबन्धी कषाय - यह आत्मा के साथ कर्मों का अनन्तकाल का अनुबन्ध करता है । सरल शब्दों में, यह आत्मा के साथ अनन्तकाल से लगा हुआ है और यदि सम्यक्त्व न हो तो अनन्त काल तक लगा रहता है ।
यह आत्मा को स्वानुभूति एवं स्व-संवेदन में बाधक बनता है । इसी अपेक्षा से यह आत्मा के सम्यक्त्व का घातक है ।
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