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३६८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ९
(( वेदनीय कर्म दो प्रकार का है
असातावेदनीय ।)
वेदनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियां - सदसवेद्ये ।९।
दो भेद है ।
वेदनीयकर्म सद् और असद् भेद से दो प्रकार का है विवेचन वेदनीय कर्म के सातावेदनीय और असातावेदनीय
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(१) सातावेदनीय और (२)
सातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप जीव को अनुकुल संयोगों की प्राप्ति होती है जिससे उसे शारीरिक-मानसिक सुख की अनभूति होती है ।
दंसणमोहणिजे तिविहे ...
चारित्तमोहणिजे दुविहे
असातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप प्रतिकूल संयोगों की प्राप्ति होती है जिससे जीव को मानसिक-शारीरिक दुःख - क्लशों की अनुभूति होती है साता-असाता का लक्षण एक शब्द में कहें तो
वेणि णवविधे 1
अनुकूल वेदनीयं सुखम्, प्रतिकूलवेदनीयं दुःख
कह सकते हैं । इष्टवियोग आदि प्रतिकूल संयोग हैं और इष्ट संयोग आदि अनुकूल संयोग हैं ।
आगम वचन
मोहणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ?
गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - दंसणमोहणिजे य चरित्तमोहणिज्जे य ।
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(भंते ! मोहनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? ) गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है
कसायवेदणिज्जे सोलसविधे नोकसाय
प्रज्ञापन कर्मबन्ध पद २३, उ. २
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यह
चारित्रमोहनीय )
दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रका का कहा गया है (१) सम्यक्त्वमोहनीय (२) मिथ्यात्व मोहनीय ( ३ ) सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय ।
चारित्रमोहनीय दो प्रकार का कहा गया है
(१) कषायमोहनीय
अनंतानु
(३२) नोकषायामोहनीय |
कषायमोहनीय कर्म सोलह प्रकार का कहा गया है
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(१) दर्शनमोहनीय (२)
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