________________
३६६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ८ श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान की क्रमशः श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण आवृत करते हैं ।
विशेष - मति आदि पाँचों ज्ञानों का विस्तृत विवेचन पहले अध्याय में हो चुका है । आगम वचन -
णवविधे दरिसणावरिणज्जे कम्मे पणत्ते; तं जहा-निद्दा निहानिद्दा पयला पयलापयला थीणगिद्धी चक्खुदंसणावरणे अचंक्खुदंसणावरणे अवधिदसणावरणे केवलदंसावरणे । - स्थानांग, स्थान ९, सूत्र ६६८
(दर्शनावरण कर्म नौ (९) प्रकार का होता है; जैसे - (१) निद्रा (२) निद्रानिद्रा (३) प्रचला (४) प्रचलाप्रचला (५) स्त्यानगृद्धि (६) चक्षुदर्शनावरण (७) अचक्षुदर्शनावरण (८) अवधिदर्शनावरण और (९) केवलदर्शनावरण । दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियां -
चक्षुरचक्षुरवधिके वलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च ।८।
((१) चक्षुदर्शन (२) अचक्षुदर्शन (३) अवधिदर्शन (४) केवलदर्शन (यह चारों आवरण रूप) और (५) निद्रा) (६) निद्रानिद्रा (७) प्रचला (८) प्रचलाप्रचला और (९) स्त्यानगृद्धि - यहा ९ दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ अथवा भेद हैं ।)
विवेचन - सूत्र में निद्रा आदि पाँचों प्रकृतियों के नामोल्लेख के बाद 'वेदनीय' शब्द दिया गया है, इसका अभिप्राय यह है कि निद्रा आदि पाँचों प्रकृतियों के बाद वेदनीय शब्द जोड़ लेना चाहिए; जैसे - निद्रावेदनीय आदि।
इसका यह भी संकेत है कि चक्षदर्शन से केवलदर्शन तक की चारों प्रकृतियाँ आवरण रूप हैं । अतः इनके पीछे आवरण शब्द जोड़ लेना चाहिए, जैसे - चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण आदि ।
'आवरण' शब्द तो 'दर्शन' कर्म के साथ ही संयुक्त है ) इसका नाम ही दर्शनावरण कर्म है । अतः इस संकेत को तो सरलतापूर्वक समझा जा सकता है ; इसीलिए आचार्य ने 'आवरण' शब्द सूत्र में नहीं दिया किन्तु "वेदनीय' शब्द 'दर्शनावरण' शब्द में संयुक्त नहीं, है, इसीलिए इसका स्पष्ट उल्लेख किया है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org