________________
२७६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र १३-१४
(पाँच स्थानों के द्वारा जीव दुर्लभबोधि (दर्शनमोहनीय) कर्म का उपार्जन करते हैं - (१) अर्हन्त का अवर्णवाद करने से (२) अर्हन्तप्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करने से (३) आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद करने से (४) चतुर्विध (धर्म) संघ (श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका) का अवर्णवाद करने से तथा (५) परिपक्व तप और ब्रह्मचर्य के धारक जो जीव देव हुए हैं, उनका अवर्णवाद (जो दोष उनमें नहीं है, वैसे दोष बताकर निंदा करना) करने से। दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रवद्वार (बन्धहेतु) ..
के वलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।१४।
(१) केवली (केवलज्ञानी), (२) श्रुत-केवलीकथित, (३) संघ (चतुर्विधधर्मसंघ), (४) धर्म (अहिंसामय) और (५) देवों का अवर्णवाद बोलना दर्शनमोहनीय के आस्रव हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत में दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रवद्वार बताये गये है। दर्शनमोहनीय कर्म आत्मा को यथार्थ का अवबोध नहीं होने देता । उसकी (आत्मा की) रुचि अपने स्वभाव की ओर होने में यह बाधा उत्पन्न करता है ।
यहाँ अवर्णवाद शब्द विशिष्ट अर्थ को लिए है । इसका आशय है - किसी वस्तु या व्यक्ति में जो दोष विद्यमान न हों वैसे दोष अपने मनमाने ढंग से लागकर उसकी निन्दा और बुराई करना, अपयश फैलाना ।
(१) केवली (अवर्णवाद) - सम्पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ आत्माओं के विषय में झूठा भ्रामक प्रचार करना, यथा- कोई सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता आदि ।
(२) श्रुत - केवली भगवान द्वारा कथित अंग, उपांग आदि घृत, गणिपिटक आदि की निन्दा करना, कहना - यह भगवान की वाणी नहीं है, असत्य हैं आदि ।
(३) संघ - चतुर्विध संघ (श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका) में व्यर्थ के दोष लगाना, उनकी निन्दा करना ।
(४) धर्म - अहिंसामय धर्म को कायरों का धर्म बताना, कहना कि अहिंसा के कारण ही देश गुलाम हुआ था आदि अनर्गल बाते कहना ।
(५) देव-देवों को मांस-मदिरा आदि भक्षण करने वाले रागयुक्त बताना।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org