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आचार - (विरति - संवर)
२९७ आचारांग (श्रु. २, अ. ८, उ. ६) की टीका में भावना अध्यवसाये कह कर चित्त के सूक्ष्म संस्कारों में बार-बार स्फुरित होने वाली विचार-तरंगों की ओर संकेत किया है । वस्तुतः चित्त की यह विचार - तरंगें ही हिंसादि पापों को निकालने का, आत्मा को परिशुद्ध करने का कार्य करती है ।
इसीलिए तो भावना के लिए अंग्रेजी में deep and constant reflection शब्द दिया है, जिसका अभिप्राय है आत्मा की गहराई तक विचारों की तरंगो का - शुभविचार उर्मियो का अनुक्षेपण करना, उन विचारों को स्थायीरूप देना । विरति का साधन इन भावनाओं का बार-बार अभ्यास करता है । अहिंसा आदि व्रतों की पाँच-पाँच भावनाओं का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है ।
(अ) अहिंसा व्रत की भावनाएँ
(१) ईर्यासमिति ईर्या शब्द में समस्त शारीरिक क्रियाओं का समावेश हो जाता है, किन्तु इसका मुख्य अभिप्राय गमनागमन की प्रवृत्ति से लिया जाता है । इस रूप में इसका अर्थ है अपने शरीर प्रमाण अथवा साढ़े तीन हाथ आगे की भूमि देखकर चलना, जिससे किसी भी जीव का घात न हो जाए, उसे कष्ट न पहुंचे ।
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विस्तृत अर्थ में ईर्यासमिति का अभिप्राय है उठना बैठना आदि कोई भी शारीरिक क्रिया ऐसी न की जाय जिससे किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट या पीड़ा हो, अथवा खिन्नता हो, सरल शब्दों में स्व-पर को कष्ट न हो, इस विवेकपूर्वक सभी शारीरिक कियाएँ करना ईर्यासमिति है और इस विचार का अनुचिन्तन ईर्यासमिति भावना है ।
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(२) मनोगुप्ति मनोयोग का निरोध अथवा आर्त और रौद्रध्यान का मन में चिन्तन न करना
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(३) एषणा समिति शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध भोजन ग्रहण करना। इसमें तीन बातें गर्भित हैं । (i) निर्दोष आहार प्राप्त करना (ii) निर्दोषितापूर्वक उस भोजन का सेवन करना (खाना) और (iii) आहार क्यों और किसलिए किया जाना चाहिए, इन सभी बातों की सही जानकारी रखना । अतः शुद्ध आहार ही आवश्यकतानुसार ग्रहण करूँ, ऐसी भावना ऐषणा समिती भावना
है ।
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