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३४६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ३३
व्रती महाव्रती साधकों को दान देना स्व-पर- कल्याण साधक है । उन्हें भी समाधि प्राप्त होती है, वे ज्ञान - दर्शन - चारित्र की साधना सुगमता से कर पाते हैं और दाता को भी ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप समाधि उपलब्ध होती है।
आगम के उद्धरण में यही बात कही गई है ।
इस दृष्टि से इस प्रकार के दान को श्रद्धादान कहा जाता है ।
अतः दान के मुख्य भेद दो हैं (१) श्रद्धादान और (२) अनुकंपादान अनुकंपादान में लौकिक दृष्टि प्रमुख है जबकि श्रद्धादान में आत्मिकआत्मकल्याणरूप दृष्टि की प्रमुखता है ।
अनुकम्पादान का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तीर्थंकर भगवान का वर्षीदान है जो वे दीक्षा ग्रहण करने से पहले एक वर्ष तक बिना किसी भेद भाव के मानव मात्र को देते रहते हैं ।
दान के प्रमुख भेद हैं (१) आहार दान ( २ ) औषधदान (३) अभयदान और (४) ज्ञान-दान । जिनमें अभयदान को श्रेष्ठ माना गया है दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं (आर्य सुधर्मा कृत वीरस्तुति)
फिर विभिन्न अपेक्षाओं से दान के अनेक भेद भी किये गये हैं । ठाणांग में दान के दस भेद गिनाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं
कृपा अथवा दया की भावना से दान देना ।
१. अनुकम्पादान
२. सग्रंहदान किसी की प्रतिष्ठा बचाने अथवा उन्नति में सहयोगी
बनने की भावना से देना ।
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६. गौरवदान
७. अधर्मदान ८. धर्मदा
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३. भयदान
आदि के भय से देना, भयदान है ।
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४. कारुण्यदान
मृत व्यक्ति के स्वजनों के प्रति करुणाभाव से दिया गया दान । जैसे- किसी व्यक्ति के मर जाने पर उसके जन्मान्तर में सुख मिलने
की आशा से लोग वस्त्र, चारपाई, गाय आदि का दान देते हैं ।
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राजा, पुरोहित, चुगलखोर, दण्डाधिकारी, रक्षाधिकारी
५. लज्जादान समाज के बीच कोई कुछ मांग बैठे तो अपनी प्रतिष्ठा अथवा लज्जा बचाने के लिए जो दिया जाता है, वह दान |
यह यश की कामना से दिया जाता है ।
अधर्म में निरत व्यक्तियों को देना ।
धर्मी, धर्माचरण करने वालों को दिया गया दान ।
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