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आठवां अध्याय
बन्ध तत्त्व (ABSORPTION AND AFFIXMENT OF
KARMAPARTICLES) उपोद्घात
पिछले सातवें अध्याय में आचार-(विरति संवर) तत्त्व का विवेचन किया जा चुका है । अब क्रम प्राप्त पाँचवाँ तत्त्व बन्ध है । प्रस्तुत आठवें अध्याय में इसी बंध तत्त्व का विवेचन किया गया है।
बंध का स्वरूप, उसके मिथ्यादर्शन आदि हेतु तथा उनका स्वरूप, बंध किस प्रकार होता है, प्रकृति स्थिति-अनुभाग आदि बंध के भेद, प्रकृति बंध के उत्तरभेद, ज्ञानावरण आदि कर्मों के बंध, इनकी उत्तर प्रकृतियों के बंध, इनकी स्थिति, फल प्रदान शक्ति, पुण्य और पाप प्रकृतियों आदि का सर्वांगपूर्ण वर्णन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है ।
अन्त में यह भी बताया गया है कि फल-प्रदान के अनन्तर इन कर्मप्रकृतियों - कर्म-दलिकों का क्या होता है, वे किस दशा में पहुंच जाते
प्रस्तुत अध्याय का प्रारम्भ बंधहेतु वर्णन से हुआ है । आगम वचन
. पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाया, जोगा ।
- समवायांग, समवाय ५ (आस्रवद्वार पांच कहे गये हैं, यथा (१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और (५) योग ।) बन्धहेतु
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबन्धहेतवः ।१।
(बन्धहेतु पाँच है- (१) मिथ्यादर्शन (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और. (५) योग ।)
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बंधहेतु बताये गये हैं । बंधहेतु का अभि
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