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बन्ध तत्त्व
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आगम वचन -
चउव्विहे बंधे पण्णते, तं जहा-पगइबंधे ठिइबंधे अणुभावबंधे पएसंबंधे ।
- समावायागं, समवाय ४ _ (बन्ध चार प्रकार का बताया गया है, यथा. (१) प्रकृतिबन्ध (२) स्थितिबन्ध (३) अनुभावबन्ध और (४) प्रदेशबन्ध ।) बन्ध के भेद
प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ।४।
१. प्रकृतिबंध २. स्थितिबंध, ३. अनुभावबन्ध और ४. प्रदेशबन्धयह बंध की चार विधियां अथवा प्रकार हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बंध की चार दशाओं को बताया गया है। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
१. प्रकृतिबन्ध - जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलो -स्कन्धों दलिकों, कार्मण वर्गणाओं में विभिन्न प्रकार की शक्ति उत्पन्न हो जाने को प्रकृतिबन्ध कहा जाता है ।
कर्म की मूल प्रकृतियाँ ८.(ज्ञानावरणीय आदि) है और उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं । प्रकृतिबंध में कर्म-दलिक इन प्रकृतियों के रूप में अवस्थित हो जाते हैं । .
२. स्थितिबन्ध - कर्म-दलिकों के आत्मा के साथ चिपके रहने सम्बद्ध रहने की काल मर्यादा स्थितिबन्ध है ।
३. अनुभावबन्ध - अनुभाव का अभिप्राय कर्मों की फल देने की शक्ति है । कर्म किस प्रकार का मंद, मंदतर, मंदतम, तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, फल ( जीव को वेदन करायेगा यह अनुभागबंध से निश्चित होता है ।
अनुभागबंध को रसबन्ध तथा अनुभागबंध भी कहा जाता है ।
४. प्रदेशबन्ध - कर्म-पुद्गलों का जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह हो जाना, चिपक जाना, सम्बद्ध हो जाना, प्रदेशबन्ध है । जीव के तीव्र परिणामों से अधिक कर्म-दलिक जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं और मन्द परिणामों से कम ।
शास्त्रों में इन चारों प्रकार के बन्ध के लिए मोदक (लड्डुओं) का दृष्टान्त दिया गया है ।
मोदक कोई हलका, कोई भारी, बड़े आकार, छोटे आकार विभिन्न प्रकार का होता है, इसी प्रकार आत्मा के साथ चिपकने वाले कर्म-परमाणु
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