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बन्ध तत्त्व ३५७ (घ) निघत्त - आत्म-प्रदेशों का कर्म-पुद्गलो के साथ अत्यन्त गाढ़ (गहरा) सम्बन्ध हो जाना; जैसे-सुइयों को आग में तपाकर और हथौड़ें से पीटकर एक कर देना ।
यह चारों प्रकार के बंध उत्तरोत्तर गाढ-प्रगाढ़ होते जाते हैं।
(२) सत्ता - इसी का दूसरा नाम स्थिति है । जब तक कर्म आत्मप्रदेशों के साथ लगे रहते हैं, उनकी निर्जरा नहीं होती; तब तक वे सत्ता में रहते हैं ।
(३) उदय - यह कर्मों की फल प्रदान करने की अवस्था है । इसे अनुभाव भी कह सकते हैं । इसके दो भेद हैं -१. प्रदेशोदय और २. विपाकोदय ।
(क) प्रदेशोदय - वह है जिसमें वेदना (कर्म द्वारा दिये जाने वाले फल या कर्म के रस) का स्पष्ट अनुभव नहीं होता; जैसे - मूर्च्छित व्यक्ति को उलटना-पलटना, सुई चुभोना आदि; क्योंकि इस दशा में उसे वेदना का स्पष्ट अनुभव नहीं होता ।
(ख) विपाकोदय - में कर्मजन्य वेदना का स्पष्ट अनुभव जीव को होता है । यह अनुभव छह प्रकार से बताया गया है - १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल, ४. भाव, ५. भव और ६. हेतु । इन्हें उदाहरणों से समझना सुगम
होगा ।
. कोई व्यक्ति मिठाई अधिक खाता है तो उसे शक्कर (sugar) की व्याधि हो जाती है, यह द्रव्यविपाक है ।
छाया से धूप में जाने पर उष्णता की अनुभूति क्षेत्रविपाक है ।
सर्दी लगकर जाड़े में जुकाम-खाँसी हो जाना कालविपाक का उदाहरण है ।
जब वर्तमान में कोई स्पष्ट बाह्य निमित्त न हो, उस दशा में पुरानी स्मृतियों अथवा भावी आशंकाओं में भरकर क्रोधित हो जाना, क्रोध का अनुभव करना, आदि भावविपाक है । यह विपाक मान, माया, लोभ आदि से भी होता है ।
भवविपाक - जन्म-सापेक्ष है, जैसे नारकियों की घोर कष्ट वेदना और देवों के दिव्य भोग । क्योंकि ऐसी घोर वेदना अथवा सुखःभोग इन्हीं गतियों और इन्हीं जन्मों में प्राप्त होती है, अन्य गतियों-जन्मों में नहीं ।
___ हेतुविपाक - में स्पष्ट बाह्य निमित्त कारण पड़ता हैं; जैसे किसी ने गाली दी और सुनने वाले को. क्रोध आ गया ।
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