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आचार-(विरति-संवर) ३०१ साधना में सहायक ही हो, उसमें बाधक न बन जाय, उसमें याचित वस्तु के प्रति अधिकार भावना अथवा अहं भाव न प्रवेश कर जाय ।
(द) ब्रह्मव्रत की पांच भावनाए -
(१) असंसक्तवास समिति - स्त्री, पशु और नपुंसक जिस शय्याआसन पर बैठते हों, उसका त्याग करना । इसका अभिप्राय यह भी है कि जहाँ स्त्रियों का बार-बार आवागमन होता हो, घर के आंगन में स्त्रियां बैठती हों और उन पर दृष्टि पड़ती हो, स्त्रियाँ समीप ही (दूसरे कमरे में ही) स्नानश्रृंगार करती हों, समीप ही वेश्याओं का आवास हो, ऐसे स्थान पर ब्रह्मचर्य व्रत के साधक को नहीं रहना चाहिए ।
इसका अभिप्राय यह है कि जिस स्थान पर रति-राग, विकार, मोह आदि बढ़ने की संभावना हो, वह स्थान ब्रह्मचर्य व्रत के साधक के लिए रुकने या ठहरने या निवास करने योग्य नहीं होता ।
(२) स्वीकथाविरति - स्त्रियों के काम, मोह, श्रृंगार, सौन्दर्य आदि की कथा न करना ।
(३) स्त्रीरूपदर्शनविरति - स्त्री के मनोहर और काम-स्थानकों को राग-पूर्वक न देखना । जंघा, कपोल, कुच, नितंब आदि स्त्री के शरीरगत काम स्थानक हैं । इनको देखने से ब्रह्मचर्यव्रत-साधक के हृदय में विकार उत्पन्न होने की संभावना है ।
(४) पूर्वरत-पूर्वक्रीड़ितविरति - पहले की हुई रति-क्रीड़ाओं का स्मरण न करना, उन्हे विस्मृति के गहरे गर्त में डाल देना।
(५) प्रणीत आहार त्याग - अधिक स्निग्ध और मिर्च-मसालेदार स्वादिष्ट गरिष्ठ भोजन न करना । क्योंकि रसीला आहार विकार बढ़ाता है ।
आचारांग और प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी यही पाँच भावनाएँ बताई गई
वास्तविक स्थिति यह है कि स्त्री हारमोन पुरुष हारमोन (Female and Male Harmones) की स्थिति चुम्बक और लोहे के समान होती है । स्त्री चुम्बक के समान पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करती है, खींचती है, तो पुरुष भी स्त्री को अपनी ओर खींचता है । युवा स्त्री पुरुष में तो यह आकर्षण शक्ति अधिक होती है । स्त्री-पुरुष का विजातीय के प्रति आकर्षण शरीर की स्वाभाविक रचना के कारण भी होता है, अतः ब्रह्म
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