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३३८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र २६-२७-२८
(१) कन्दर्प - कन्दर्प काम (काम की भावना) को कहते है । अतः इस अतिचार में ऐसे वचन बोलने, सुनने अथवा ऐसी चेष्टाओं की परिगणना की जाती हैं जो विकारों को बढ़ाने वाली हो ।
(२) कौत्कुच्य - दूसरों का हँसाने के लिए भांड़ों जैसी अश्लील चेष्टाएँ करना ।
(३) मौखर्य - बढ़-चढ़कर बोलना, अपनी शेखी मारना ।
(४) असमीक्ष्याधिकरण - मन में निरर्थक संकल्प-विकल्प करना, हर स्थान पर बिना प्रयोजन ही बोलते रहना और शरीर से निरर्थक चेष्टाएँ करते रहना ।
आगम में इसे 'संयुक्ताधिकरण' कहा है, जिसका भाव है अनावश्यक रूप में घातक/विस्फोटक शस्त्र आदि का संग्रह करना । या शस्त्र को संयुक्त करकेबन्दूक में कारतूस भरकर, धनुष पर तीर चढ़ाकर रखना । इससे कभी-कभी अनचाहे, अनजाने भी हिंसा हो जाती है ।
(५) उपोभोगधिकत्व - उपभोग-परिभोग व्रत में जितनी वस्तुओं का प्रमाण किया है, उसके भीतर ही, किन्तु आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना उपभोगाधिक नाम अतिचार है । आगम वचन
सामाइयस्स...पंच अइयारा...तं जहा -मणु दुप्पणिहाणे वयदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकरणयाए सामाइयस्स अणवदियस्स करणया ।
- उपासकदशांग, अ. १ (सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं, यथा - (१) मनोदुष्प्रणिधान (२) वचन दुष्प्रणिधान (३) कायदुष्प्रणिधान (४) स्मृति अकरण और (५) अनवस्थिकरण । ) सामायिक व्रत के अतिचार
योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ।२८ ।
((१-३) योग (मन-वचन-काया) दुष्प्रणिधान, (४) अनादर और (५) स्मृतिअनुस्थापन-यह सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं ।
विवेचन - मन को चलायमान करना मनोदुष्प्रणिधान है । वचन और काया को चलायमान करना, सावद्यकारी वचन बोलना, बार-बार आसन बदलना वचन और काया का दुष्प्रणिधान कहलाता है ।
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