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तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ४-७
अपने से अधिक गुण वालों को देखकर आनन्द में भर जावे ।
दुखी जीवों पर दया करे ।
प्रतिकूल परिस्थितियों में समाधि का पालन करते हुए, निर्जरा की अपेक्षा करता हुआ माध्यस्थ भाव रखे ।
संवेग के लिए शुभ भावनाओं से अपने आपको अच्छी तरह चिन्तन करके अनित्य जीवलोक में जीवन और रूप बिजली चमक के समान चंचल है, यह चिंतन करे ।
योग भावनाएँ एवं शरीर-संसार स्वरूप चिन्तन
मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्वगुणाधिक्यक्लिश्यमाना विनयेषु |६|
जगत् कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् । ७।
सर्व साधारण जीवों में मैत्रीभाव, अधिक गुणवालों में प्रमोदभाव, दुःखी प्राणियों में कारुण्यभाव और अविनयी एवं अयोग्य प्राणियों के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना (चिन्तन करना) ।
संवेग तथा वैराग्य के लिए जगत् और काय के स्वभाव का चिन्तन करना ।
विवेचन - पूर्वोक्त सूत्र ४ अर ५ में दुःखफलौ विपाक प्रदान करने वाली भावनाओं का कथन किया गया था, वहाँ सूचन था कि इन भावनाओं के चिन्तन से हिंसादि पापों से विरति दृढ़ करें ।
जबकि प्रस्तुत सूत्र ६ और ७ में विधेयात्मक भावनाओं के चिंतन की प्रेरणा है । मैत्री आदि विधेयात्मक भावनाएँ हैं । इनके चिन्तन से व्रती साधक में अहिंसा, क्षमा, तितिक्षा और दया के भाव दृढ़ीभूत होते हैं और जगत् के स्वभाव तथा शरीर के स्वरूप की वास्तविकता जानने से - इनके क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए स्वभाव पर अनुप्रेक्षात्मक चिन्तन करने से संवेग और वैराग्य के भाव दृढ़ होते हैं ।
मैत्री भावना - मैत्री का अभिप्राय है सभी प्राणियों की हित चिन्ता करना मैत्रीपरेषां हितचिन्तनं यद् ( शान्तसुधारस भावना) ।
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इस मैत्री भावना का आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों ही दृष्टीयों से जीवन में काफी महत्व है । मैत्र भावना से अन्य प्राणी भी प्रभावित होते हैं, यहाँ तक कि हिंसक पशु भी साधक के प्रति उपद्रवों नहीं बनते । )
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