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३१० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७: सूत्र ८
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जगत् और काय के स्वरूप - चिन्तन का फल प्रस्तुत सूत्र में संवेग और वैराग्य शब्द आया है । संवेग का अभिप्राय है- चतुर्गति रूप संसार से भयभीत होना। दूसरे शब्दों मे यह संसार दुःखमय है। चारों गतियों में दुःख है । जो इन्द्रिय-सुख आदि दिखाई देते भी हैं; उनका भी अन्त दुख ही है । संसार के ऐसे स्वभाव के चिन्तन से हृदय में संवेग जाग्रत होता है । शरीर की भी यही दशा है । ग्रन्थों के अनुसार मानव शरीर में साढ़े पांच करोड़ रोग हैं । आज के युग में भी नये-नये रोग सुनने में आ रहे है। शरीर व्याधियों का घर है । क्षण-क्षण में इसमें परिर्वतन हो रहा है, यह स्थाई नहीं है, विनाशधर्मा है। इस प्रकार शरीर के स्वभाव को जानने से इसके प्रति मोह घटता है ।
अतः संसार और शरीर की वास्तविक स्थिति को जानने तथा उसका बार-बार चिन्तन करने से संवेग और वैराग्य में दृढ़ता आती है ।
संवेग का एक अर्थ यह भी है, सम्यक् + वेग - संवेग । धर्म एवं शुभ कार्यों के प्रति उत्साह, तथा वैराग्य का अर्थ है इन्द्रिय-सुखों से विरक्ति ।
आगम वचन
तत्थ णं जेते पमत्तसंजया ते असुहं जोगं पडुच्च आयारंभा परारंभा जाव णो अणारंभा । भवगती, श. १, उ. १, सूत्र ४९
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(प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनि भी अशुभयोग को प्राप्त होकर आत्मारम्भ हुए भी परारम्भ हो जाते है और पूर्ण आरम्भ करने लगते है ।
होते
विशेष प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनि भी प्रमाद के योग से पुनः प्राणव्यपरोपण रूप हिसा में लग सकते हैं । अन्य लोगों की तो बात ही क्या ?
हिंसा के लक्षण
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प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा | ८ |
(प्रमाद के योगपूर्वक प्राणों का वियोग होना हिंसा है ।) विवेचन प्रस्तुत सूत्र में 'प्रमत्तयोग', 'प्राण' और 'व्यपरोपण' यह तीनों शब्द महत्वपूर्ण हैं । इनको भली भाँति समझे बिना हिंसा और इसके विपरीत अहिंसा को भी सही अर्थो में समझना संभव नहीं है ।
व्यपरोपण इसके अनेक अर्थ होते है, जैसे दूर करना, नाश करना,
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